आँधी - सिपाही सिंह 'श्रीमंत'

गूमसूम-गूमसूम तनिको ना भावे हमें
आँधी हईं आँधी, अंधाधुंध हम मचाइले
नास लेके आइले, कि नया निरमान होखो
नया भीत उठेला, पुरान भीत ढाहिले।

ढाहिले पुरान, जीर्ण-शीर्ण के झकोरा मार
बुढ़िया सम्हारे तले ढाह ढिमिलाइले
नइकी पतइयन के दुनिया सँवारेला
पाकल पतइयन के भुँईं भहराइले।

कोठा वो अमारी सातखंड में लुका के सूते
ओकरो करेजवा में कँपनी ढुकाइले
कोठा का जे चारु ओर हाहाकार उठे
ओमें कोठा के गिरावेवाला बल, ई बताइले।

सुविधा सहोट के जे बइठल कंगूरा पर
कलसा गुमानी लो के मुड़िया ठेंठाइले
हो-हो क-के, हू-हू क-के, दउर-दउर बार-बार
मार के निछोहे गवें चसकल छोड़ाइले।

बइठ के निचिन्त हरियरी का अलोता जे
रात-दिन खाली चोटिए सँवारेले
अइसन पहाड़ लो के टीकवे उखाड़ ली-ले
मार के झकोरा उनुकर बबुरी बिगड़िले।

बड़-ऊँच लमहर रोके के जे राह चाहे
ओह लो का हस्ती के माटी में मिलाइले
छोटे-छोटे, हलुक-हलुक, नन्हीं-नन्हीं मिले
ओके गोदी में उठा के आसमान में खेलाइले।

केहू के उठाइले, गिराइले केहू के हम,
आँधी हईं आँधी, अंधाधुध हम मचाइले
घेर आसमान के अन्हार घोर घटा करे
फुँक-फाँक रुई लेखा ओके उड़िआइले।

बइठल-बइठल धरती के रस चूस
चूस जिएवाला लो के आँख पर चढ़ाइले
भारी-भारी मोट-मोट, ढेर-ढेर पत्तावाला
गाछ लो का फुनुगी के माटी में सटाइले।

छतिया उतान क-के, मन में गुमान क-के
नवे के ना चाहे, ओके दूर से तिकाइले
किनहूँ के घेंट पर से मुंड़िए अँईंठ दिले
किनहूँ के साफ जर-सोर से गिराइले।

दिन-रात लात से जे सभे दरमसे, ओहू
धुरा-खरपात में भी जिनगी जगाइले
नीचा रहेवाला लो के नीचा से उठाइले
त बड़-बड़ ऊँच लो का मूड़ी पर चढ़ाइले।

रुख हमर देख-देख दूभ लेखा काम करे
सिरवा नबावे ओके कुछ ना बिनाड़िले
अईंठल-अँकड़ल राह रोक खड़ा होखे
खाली हम ओही लो के चिन्ह के उजाड़िले।
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सिपाही सिंह 'श्रीमंत'

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