पेंचर पहुना - प्रभाकर पांडेय

कल्हिए रमेसर काका एगो टाली के परची दे गइल रहुअन। ऊँखी छिलवावे के रहुए एसे आजु सबेरवें ऊँखी छिलवावे खातिर पूरा गाँव की लोग के चला के हमहुँ ऊँखियारी में चलि गउँवीं।

रउआँ सभें त जानते बानी की जेकरा एक्कोगो चउवा बा आ चाहें पलानी-ओलानी छावे के बा उ जाड़ा-पल्ला थोड़े देखेला। केतनो जाड़ा पड़त रहो लोग-लइका कंबल-ओंबल ओढ़ि के चाहें गाँती-ओंती बाँधि के ऊँखी छिले खातिर भिनसहरवे ऊँखिआरी की ओर चलि देला। गाई-गोरू के खाए खातिर गेड़ त गेड़ कुछ लोग पलानी-ओलानी छावे खातिर पतइओ बाँधि ले आवे ला। अरे एतने ना आजकल त लवना के काम भी ए पतई से चलि जाला अउर ए जाड़ा-पल्ला में तापहुँ की कामे आवेला। केतना हँसी-ठिठोली होला ऊँखी छिलले में। आनंदे-आनंद रहेला। खूब ऊँखियो चीभे के मिलेला अउर सबेरहीं-सबेरहीं पूरा गाँव का अगल-बगल की गाँवन के समाचार भी इहाँ मिली जाला।
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हँ त भउवे इ की ऊँखी की खेत में से हम छिलल ऊँखी ढोवा के टेक्टर के टाली पर लदवावत रहुवीं तवले देखतानी की ओही जाड़ा-पल्ला में पेंचर पहुना साइकिल डुगरावत चलल बाने। अरे पेंचर पहुना के देखते त रमेसर काका ऊँखी सरिआवल छोड़ि के बोलताने,

"पेंचर पहुना, राम-राम; सबेरे-सबेरे कहाँ से आवतबानी? आईं-आईं गाँव-घर के समाचार सुनाईं। एक-आध गो ऊँखि चूसीं। बड़ी दिन की बाद राउर दरसन भइल बा।"

रमेसर काका के बाति सुनते पेंचर पहुना साइकिल उहवें खड़िहा देहने अउर एगो सोगहग ऊँखी उठा के लगने चूसे। हमहुँ बढ़ि के पेंचर पहुना के पँवलग्गी कइनी अउर ऊँखियारी में से थोड़े पतई लिआके उहवें बारि देहनी।

अब पेंचर पहुना पतई तापे लगने अउर जब शरीर तनि कड़क हो गइल तS कहल सुरु कइने,

"दरअसल 15-20 दिन हो गइल घर से निकलले। गाँव-जवार के लोग अउर बहुत जाने रिस्तेदार गोधना कुटइले की बादे से पीछे पड़ल बा लोग कि पेंचर पहुना तनि जवार-पथार घूमि के लइका खोजि दीं।"

पेंचर पहुना की एतना कहते रमेसर काका बोलि पड़ने,

"पेंचर पहुना, रउआँ हरदम पूरा जवार-पथार घूमत रहेनी अउर पूरा जवार-पथार के खबरो राखेनीं। रउरा पूरा पता होला की कहाँ कवन लइका विआह करे की जोग हो गइल बा। ए वजह से लोग रउआँ के इ सुभ काम सउँपेला।"

अब पेंचर पहुना फूलि के गदगद हो गइने अउर कहने, "रमेसर बाबू, तूँ एकदम ठीक कहतारS, पर जानतारS ए से हमार बहुत नुकसान बा। आपन काम-धाम छोड़ि के हम जवार-पथार घूमि के दूसरे लोगन खातिर लइका खोजतानी अउर एन्ने हमरी घर के लोग हमरी पर रिसियाके फुल हो गइल बा।"
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हमरा इयादि बा पेंचर पहुना पंदरहो दिन ना बितेला की आपन दरसन दे देने। उनकर आवा-जाई एतना लागल रहेला की पूरा गाँवभर की लोग-लइका से उनकरा परिचय बा। गाँव में धुकते लोग-लइका उनकर पँवलग्गी कइल अउर हालचालि पूछल सुरू क देला। उनकरा गाँव में ए पार से ओ पार जाए में साँझि हो जाला। बीस जाने की घरे पानी पियेने। अरे भाई पियेने ना लोग पियावेला। केहू मिट्ठा के रस ले के आई त केहू भूजा-भरी अउर पेंचर पहुना केहु के ना नाहीं क पइहीं अउर बड़ी परेम सेपीहें-खइहें।
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अब हम रउआँ के बता दीं की हमरी गाँव में एकजाने मुसमाती रहली उनकरा एक्के जाने लइकनी रहली अउर ओ लइकनी के विआह एही पेंचर पहुना से भइल रहे। आजु न उ मुसमाती जियतारी ना पेंचर पहुना के मलिकाइन पर तब्बो पेंचर पहुना के गाँव में बहुत पूछारि बा। हँ एकबात अउर गाँवभरि के लोग-लइका-मेहरारू-ओहरारू सब केहू पेंचर पहुना के पेंचरे पहुना कहि के बोलावेला।

पेंचर पहुना के असली नाव खमेसर शुकुल रहे पर धीरे-धीरे उ गाँव-जवार में पेंचर पहुना की नाव से परसिध हो गइने। अरे भाई आजु-कल उनकरी गाँव के लोग भी उनके पेंचरे पहुना की नाव से बोलावेला।
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उनके नाव पेंचर पहुना काहें परल एकरी पीछे एगो लंबा कहानी बा। दरअसल एकबेर का भइल की पेंचर पहुना हमरी गाँव में आइल रहने अउर ओ बेरा मुसमाती इया जिअत रहली। पेंचर पहुना 5-7 दिन हमरिए गाँवे रहि गइने। ओने उनकरी घर के लोग परेसान हो के एगो आदमी के पेंचर पहुना के बोलावे खातिर भेजल। पेंचर पहुना ओ आदमी की साथे अपनी घरे जाए के तइयार हो गइने। जब साँझि भइल त पेंचर पहुना ओ आदमी की साथे अपनी गाँवे जाए खातिर निकललने। अरे इ का ओकरी बिहान भइले फेर से गाँव के लोग देखता की पेंचर पहुना त गँवहीं में बाने। जब लोग पूछल की रउआँ त रतिएँ अपनी गाँव चलि गउँवी त एतना बिहाने-बिहाने कहाँ से उपरा गइनी हँ त ए पर पेंचर पहुना कहने की अबहिन ए गाँव से बाहरे पहुँचल रहुँवी की हमार सइकिलिए पेंचर हो गउवे अउर हमरा वापस आवे के पड़ुवे।

खैर, अब एगो दूसर घटना सुनीं। एकबेर के बाति ह कि पेंचर पहुना की मामा के लइका हमरी गाँवे आइल रहने अउर मुसमाति इया की इहाँ ठहरल रहने। गाँव के कुछ लोग उनसे पेंचर पहुना के हालि-चालि पुछि देहल अउर इहो कहल की काफी दिन हो गइल पेंचर पहुना के दरसन ना भइल। ए पर पेंचर पहुना के ममिआउत भाई कहने की पेंचर पहुना त कल्हिएँ हमरी सथही रउरी सभ की गाँवे आवे खातिर निकलने पर उनकर सइकिलिए पेंचर हो गइल अउर उ आ ना पवने।
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कुछ लोग के इ कहनाम ह कि पेंचर पहुना जानि-बुझि के अपनी साइकिल के हउवे निकालि देने अउर बहाना बना के रूकि जाने। पर खएर जवन होखो, पेंचर पहुना के गाँव-जवार के लोग सनमान से देखेला। उ भले कवनो रिस्तेदारी में 15 दिन का 1 महीना भी रुकि जाँ त उनकरी ऊपर इ कहाउत चरितार्थ ना होला, "पहिल दिन पहुना, दूसर दिन ठेउना,तिसर दिन केहु ना।" उ हरदम पहुने बनल रहेने।

खैर अब देखिं नS लागता कि आजुवो पेंचर पहुना के साइकिल पेंचर हो गइल बिया अउर ए बेरी भी पेंचर पहुना हमरी गाँव में सबकी घरे ऊँखिबवगा के रसिआव खइले की बाद, खिचड़ी के नहान भी पटनवापुले पर क के लाई-धोंधा खइले की बादे डोलिहें...अरे ना-ना, एइसन बाति नइखे, गाँव के लोगे अब उनके खिचड़ी की नहान की पहिले जाहीं ना दी।
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पेंचर पहुना - प्रभाकर पांडेय लेखक परिचय:-
नाम: प्रभाकर पांडेय
जन्मतिथि- 01.01.1976
जन्मस्थान- गोपालपुर, पथरदेवा, देवरिया (उत्तरप्रदेश)
पिता- स्व. श्री सुरेंद्र पाण्डेय
शिक्षा- एम.ए (हिन्दी), एम. ए. (भाषाविज्ञान)

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