मरिचाई - जयशंकर प्रसाद द्विवेदी

मरिचाई लागेले
छुवला पर कबों-कबों
बेछुवलो लागि जाले
बेछुवल लागल मरिचाई
ढेर दिन ले छछराले
का जानि काहें
ई लगियो जाले
कुछ लोगन के।

बुझाये लागेला
दोसरो के
बाकि जेकरा साँचो लागल रहेले
उ कहियो ना पावेला
आपन दरद आउर पीर
ओकरा चीसत देखि
ढेर लोग मुस्कियात रहेले
कनखी मार के।

भलही आपन लूर
एकहु कउड़ी के ना होखे
डींग हाके मे सभेले आगे
अलगा जाये आ देखावे के फेरा मे
निकलुवा अस हो जाला
तबों घुमची अस अपना
ललछौही निरेखत रहेला
जरलकी करियई से निभोर होके।

अपने गुरुरे आन्हरन के
ढेर लागेले मरिचाई
अब मरिचाई लागल बा
त परपराइबो करी
टीसबो करी
फेर खजुली ना होखी
त का होखी
कुछ के इहे सुख बा।
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लेखक परिचय:-
नाम: जयशंकर प्रसाद द्विवेदी
संपादक: (भोजपुरी साहित्य सरिता)
इंजीनियरिंग स्नातक;
व्यवसाय: कम्पुटर सर्विस सेवा
सी -39 , सेक्टर – 3;
चिरंजीव विहार , गाजियाबाद (उ. प्र.)
फोन : 9999614657
ईमेल: dwivedijp@outlook.com
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ब्लॉग: http://dwivedijaishankar.blogspot.in

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