जीअन कहले गाँव में
पिपरा के छाँव में
इनरा के पानी पर
लौकी-कोहड़ा छान्ही पर
जे के मन करे
तुर के खाव,
धोबीघटवा में डुबकी लगाव।
सभे भाई-भतीजा ह,
गाँव के दमदा
सबके जीजा ह।
गाँव भर के दाढ़ी
बोधा भाई
बनावेले एके छूरा से,
यादो जी,महतो-अंसारी चाचा
तपिस जगावे देह में
एक्के घूरा से।
एक्के ताश के फेंटा पर
एक्के कुरुई में भुजा बा,
अपना झमाड़ा के फरहरी सब
जुआ के भइल खूजा बा,
सब हाँड़ी पर परई बइठल
सबके राग समझेला लोग,
भले कतहूँ दही चिउड़ा से
त कतहूँ -
गरई के लागेला भोग।
दुअरा काका के काना-फुस्सी पर
गिरधारी चुटकी मारे ले
होत भिनुसारे नगीना भाई
सबके गइया गारे ले।
भक्ति-भक्त के नाम ले के
तिरछोलई के अम्बर ओढेला जे
डांड़-आर मिलावे में
कुदारी के कोना से कोड़ेला जे,
ऊ सगरो टोला के मुद्दई हवे
मिल जोल से रिश्ता निबहेला,
सबके हाथ से ले के लौंग
लौंगिया बाबा के बतिया नेह से उचरेला।
जब एक्के लहरिया मारे सब
तब ताल लड़े बलाय से
भोरहरिया चुस्की चढ़ जाला
पंडी जी के चाय से।
लउके ना कतहूँ इनरा अब
बाग़-बगीचा छान्ह भी
ओहिसन बतरस कहवाँ बा
नाहीं मीठ जुबान भी।
अइसन अब गाँव कहाँ ?
पिपरा के छाँव कहाँ?
टाटी-बाती- बान्हा ना
हँसियाली के बहाना ना।
अटकन-चटकन दही चटाकन
सबके घर के गीत हवे
जे बाउर से बैर करेला
ऊहे सबके मीत हवे।
बदलत समय के फेरा ह
ई जग तब्बे त डेरा ह।
होत बिहाने जब कतहूँ
कवनो मनई लोटा ले धावले,
साँच कहिले हियरा में
जीअन बहुते ईयाद आवेले।
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पिपरा के छाँव में
इनरा के पानी पर
लौकी-कोहड़ा छान्ही पर
जे के मन करे
तुर के खाव,
धोबीघटवा में डुबकी लगाव।
सभे भाई-भतीजा ह,
गाँव के दमदा
सबके जीजा ह।
गाँव भर के दाढ़ी
बोधा भाई
बनावेले एके छूरा से,
यादो जी,महतो-अंसारी चाचा
तपिस जगावे देह में
एक्के घूरा से।
एक्के ताश के फेंटा पर
एक्के कुरुई में भुजा बा,
अपना झमाड़ा के फरहरी सब
जुआ के भइल खूजा बा,
सब हाँड़ी पर परई बइठल
सबके राग समझेला लोग,
भले कतहूँ दही चिउड़ा से
त कतहूँ -
गरई के लागेला भोग।
दुअरा काका के काना-फुस्सी पर
गिरधारी चुटकी मारे ले
होत भिनुसारे नगीना भाई
सबके गइया गारे ले।
भक्ति-भक्त के नाम ले के
तिरछोलई के अम्बर ओढेला जे
डांड़-आर मिलावे में
कुदारी के कोना से कोड़ेला जे,
ऊ सगरो टोला के मुद्दई हवे
मिल जोल से रिश्ता निबहेला,
सबके हाथ से ले के लौंग
लौंगिया बाबा के बतिया नेह से उचरेला।
जब एक्के लहरिया मारे सब
तब ताल लड़े बलाय से
भोरहरिया चुस्की चढ़ जाला
पंडी जी के चाय से।
लउके ना कतहूँ इनरा अब
बाग़-बगीचा छान्ह भी
ओहिसन बतरस कहवाँ बा
नाहीं मीठ जुबान भी।
अइसन अब गाँव कहाँ ?
पिपरा के छाँव कहाँ?
टाटी-बाती- बान्हा ना
हँसियाली के बहाना ना।
अटकन-चटकन दही चटाकन
सबके घर के गीत हवे
जे बाउर से बैर करेला
ऊहे सबके मीत हवे।
बदलत समय के फेरा ह
ई जग तब्बे त डेरा ह।
होत बिहाने जब कतहूँ
कवनो मनई लोटा ले धावले,
साँच कहिले हियरा में
जीअन बहुते ईयाद आवेले।
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नाम - केशव मोहन पाण्डेय
2002 से एगो साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ के संचालन।
अनेक पत्र-पत्रिकन में तीन सौ से अधिका लेख, दर्जनो कहानी, आ अनेके कविता प्रकाशित।
नाटक लेखन आ प्रस्तुति।
भोजपुरी कहानी-संग्रह 'कठकरेज' प्रकाशित।
आकाशवाणी गोरखपुर से कईगो कहानियन के प्रसारण, टेली फिल्म औलाद समेत भोजपुरी फिलिम ‘कब आई डोलिया कहार’ के लेखन अनेके अलबमन ला हिंदी, भोजपुरी गीत रचना.
साल 2002 से दिल्ली में शिक्षण आ स्वतंत्र लेखन.
संपर्क –
तमकुही रोड, सेवरही, कुशीनगर, उ. प्र.
kmpandey76@gmail.com
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