राजीव उपाध्याय कऽ दू गो कबिता

फेर काँहे सुनेनी हम तोहार बतिया


उठि सूती पूछे मन, एगो हमसे बतिया
काहे खाती दिन बावे, काँहे खाती रतिया

रोज भिंसहरे काँहे, किरिन सूरुजवा
अउरी अन्हियारा, काँहे रोजे-रोजे रतिया॥

काँहे लोग मिलेला, अउरी जाला कहवाँ
फेर गीतिया सुनावेला, हमके दिन-रतिया॥

इहे साँच बावे कि, हम नाही केहू हवीं
फेर काँहे सुनेनी, हम तोहार बतिया॥
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मतलब तोहरो से कुछू निकलत होई

मन-मन सोचि-सोची काँहे मुसका लऽ
केहू ना केहू सूनले तऽ होई।
बात जेवन तूँ कहब केहू से
केहू ना केहू कहले तऽ होई॥

कुछू नाही बावे तोहसे इहाँ
तोहरे से सभ कुछ, सभका से तूँ।
इहे बावे रीत-मीत सगरे इहाँ
केहू ना केहू मिलले तऽ होई॥

रूप सिंगार सभ बावे मतलब के
आदमी जीएला पी के जहर के।
एने-ओने छपिटा के काँहे अहकत बाड़ऽ
मतलब तोहरो से कुछू निकलत होई॥
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लेखक परिचय:-

पता: बाराबाँध, बलिया, उत्तर प्रदेश
लेखन: साहित्य (कविता व कहानी) एवं अर्थशास्त्र
संपर्कसूत्र: rajeevupadhyay@live.in
दूरभाष संख्या: 7503628659
ब्लाग: http://www.swayamshunya.in/
अंक - 83 (7 जून 2016)

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