तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया - राजीव उपाध्याय

तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया

जेसे गइलें सभ केहू;
अउरी निकललऽ परान॥
तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया

नेहवा लगवनी गेहवा लगवनी
रहिया डहरिया अउरी नगरिया;
छोड़ि दिहलें सभ बाकिर
पलखत पाके हमरी जान॥
तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया

दोस दीं के-के हम
के-के सनेस पठाइँ
पढ़े वाला केहू नइखे
जे देहि कान॥
तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया

बावे सभ बेकाम इहाँ
उपर-झापर, एनो-ओने
अउरी जेतना सनेह सभ
जोर लऽ बटोर लऽ आपन-आपन दोकान॥
तिकवतऽ रहि गइनीं हम ओहि डहरिया
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लेखक परिचय:-


पता: बाराबाँध, बलिया, उत्तर प्रदेश
लेखन: साहित्य (कविता व कहानी) एवं अर्थशास्त्र
संपर्कसूत्र: rajeevupadhyay@live.in
दूरभाष संख्या: 7503628659
ब्लाग: http://www.swayamshunya.in/

अंक - 78 (03 मई 2016)

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