दुखियन के तन-मन-प्रान चलल।
जब तीस जनवरी जाति रहलि, सुक के संझा मुसुकाति रहलि।
दिल्ली में भंगी बस्ती के, धरती मन में अगराति रहलि॥
जन-जन पूजा-मयदान चलल॥1॥
तनिकी बापू के देरि भइलि, पूजा में अधिक अबेरि भइलि।
अकुलाइलि आँखि हजारनि गो बिछि राह बीच बहुबेरि गइलि॥
तब भक्तन के भगवान चलल॥2॥
बाजि पाँच सुई कुछ घूमि चललि, बदरी जय लाली चूमि चललि।
तब छितिज-छोर से बिपति-नटी, जग-रंगमंच पर झूमि चललि॥
बनि साधु तहाँ सइतान चलल॥3॥
चुप चरन मंच का ओर चलल, नंगा फकीर चितचोर चलल।
पूजा का सान्ति-सरोवर में, छन में आनन्द-हिलोर चलल॥
अनमोल मधुर मुसुकान चलल॥4॥
नतिनिन पर दूनों हाथ रहल, चप्पल में दूनों लात रहल।
धपधप धोती, चमचम चसमा, चद्दर में लिपटल गात रहल॥
हरिपद में लागल ध्यान चलल॥5॥
पग पहिला सीढ़ी पार चलल, तबले नाथू हतिआर चलल।
पापी का नीच नमस्ते पर, बापू के प्यार-दुलार चलल॥
बनि लाल नील असमान चलल॥6॥
जुटि हाथ गइल अभिवादन में, उठि माथ गइल अह्लादन में।
अपना छाती के बजर बना जमदूत बढ़ल आगे छन में॥
पिस्टल के साधि निसान चलल॥7॥
मन राम नाम में लीन रहल, तन सीढ़ी पर आसीन रहल।
मन-मंदिर में बलिबेदी पर, बलि-बकरा बधिक-अधीन रहल॥
कहि राम, सरग में प्रान चलल॥8॥
जननी के जीवन लाल चलल, दुखियन के दीन-दयाल चलल।
थर-थर-थर धरती काँपि उठलि, भारत-भीतर भुँइचाल चलल॥
जन-जन पर बिस के बान चलल॥9॥
जग जेकर प्रेम-समाज रहल, बिन ताज सदा सिरताज रहल।
मुठ्ठी-भर हड्डी में जेकर, कोटिन के लिपटल लाज रहल॥
सब के मन के अरमान चलल॥10॥
ऊ एक अकेल अनन्त रहल, ऊ आदि रहल उ अन्त रहल।
सिख, हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, अल्ला, ईसा, भगवन्त रहल॥
सब के संगम असथान चलल॥11॥
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लेखक परिचय:-
नाम: प्रसिद्ध नारायण सिंह
जनम: जुलाई 1901
जनम थान: चित बड़ागाँव, बलिया, उत्तरप्रदेश
रचना: बलिया-बहार, बलिदानी बलिया, फुलडलिया
अंक - 79 (10 मई 2016)
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