एह धरती के सगरी के सगरी लोकगीत अउरी लोककथा के लिखल भा पहिले गावल केहू नइखे जानत बाकिर लोकगीत लोक के जिनगी के हिस्सा होखेला काँहे कि ई जिनगी के साँच के बखान करेवा होखे ली सऽ। अभय कृष्ण त्रिपाठी "विष्णु" जी कऽ ई दूनू कबिता रउआँ सभ खाती।
- राजीव उपाध्याय
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डोले बसन्ती बयार मगन मन होला हमार।
गेहुँआ मण्टरिया से लहरल सिवनवा,
होखे निहाल भइया सगर किसनवा
धरती के बाढ़ल श्रृंगार, मगन मन होला हमार।
बिहँसेला फुलवा महकेला क्यारी,
ताक झाँक भँवरा लगावे फुलवारी
मौसम में आइल बहार, मगन मन होला हमार।
आईल कोयलिया अमवाँ के डरिया,
पीयर चुनरिया पहिरे सवरियाँ
सोहेला पनघट किनार, मगन मन होला हमार।
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अभय कृष्ण त्रिपाठी "विष्णु"
अंक - 61 (5 जनवरी 2016)
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