गुलरेज शहजाद जी के तीन गो कबिता

ढोल मंजीरा खानी जंगल 
बाज रहल बा 
आबादी के मौन में 
भारी कोलाहल बा 

समय के माथ पs चिन्हासी 
चिंता के लउके 
घर के भीतर बाहर सगरो 
राजनीति के हल्ला-गुल्ला 

धरम कबड्डी खेल बनल बा 
हिन्दू-मुस्लिम के रट मारत 
दउरस पंडित-ज्ञानी मुल्ला 
केहू जतन करे कुछ नाहीं 
सब केहू बनल पनसोखा 
ओका बोका तीन तड़ोका 

मुचकाईं ईमान धरम के 
हड्डी गुड्डी 
आईं चलीं खेलल जाव 
चेत कबड्डी चेत कबड्डी
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अलगे-अलगे दयरा में 
डुगडुग्गी बाजे 
अलगे-अलगे खेल तमासा 
करतब होता 
अपना आप से टकराहट बा 
आपने धूरी पर सब केहू 
नाच रहल बा 
एको डेग के आगे बढल 
लउकत नइखे 
अलगे-अलगे मठाधीस आ 
संत- महंथन के उपिटाइल 
देख रहल बानीं हम सगरो 
भोजपुरी माई के अंचरा 
चेथड़ा-चेथड़ा भइल जाता 
अधिकार के मांग के पुर्जा 
उड़ल जाता 
आपन -आपन कबरगाह के 
अलगा-अलगा मुर्दा नियन 
कब ले सकित रहल जाई? 
अब कतना ले बाट जोहाई? 
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सुनीं सुनीं देखीं हेने 
खाईनी ठोंक पर 
हरा बाजी लागल बाटे 
के पटकाई 
के केकरा पर चढ़ी 
चलीं चलीं देखे 
हे हे हे हे 
हे हे हे हे 
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लेखक परिचय:-

कवि एवं लेखक
चंपारण (बिहार)
E-mail:- gulrez300@gmail.com 

अंक - 63 (19 जनवरी 2016)

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