दलित-विचार : बीचो के एगो राह होला - देवेन्द्र आर्य

दलित विचार का बारे में राजनीतिक सोच जतने व्यावहारिक, साफ आ मकसद वाला लउकेला, साहित्यिक सोच ओतने अझुराह, भकुआइल, ठहरल आ भेड़चाल वाला बा. अम्बेडकर से लगवले कांसीराम-मायावती तक के राजनीतिक नजरिया साफ बा कि सत्ता में दलितन के हिस्सेदारी तय करवले बिना सदियन से चलल आवत ओह लोग के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन खतम ना हो सके. कुछ हद तक एह सचाई से इंकारो ना कइल जा सके बशर्ते सत्ता में दलित भागीदारी के मतलब महज कवनो जगजीवन राम भा कवनो मायावती एण्ड कं. के भागीदारी मतस समुझल जाव.
सत्ता पर काबिज होखे ला अब कवनो राजनीतिक गोल आ कवनो जाति के आदमी अम्बेडकरवादियन खातिर अछूत नइखे रहल अब. सैकड़न साल से अछूत के दंश झेले वाला दलित, मनुवादियनो के अछूत नइखन मानत बशर्ते एहसे गद्दी मिल जाव. ओह लोग ला दलित-राखी आ सवर्ण-बैसाखी में कवनो भेदभाव नइखे. एह सैद्धान्तिक रणनीति से ऊ लोग संसदीय प्रणाली में खूब फायदे उठवले बा. उत्तर प्रदेश में माया-मिश्रा के नयका राजनैतिक केमिस्ट्री से बसपा के गजबे के सफलता मिलल बा. मस्तराम कपूर भलही एह सोशल इंजीनियरिंग के ‘लासेबाजी की राजनीति’ कहत होखसु, हकीकत इहे बा कि एह नयका सोशल इंजीनियरिंग से दलित राजनीति के एगो नया दिशा मिलल बा जवना के आपन माॅडल बनावे से कमोबेस सगरी चुनावबाज पार्टियन में भितरे-भीतर सहमति लउकत बा. एकरा उलट दलितन के साहित्यिक सिद्धान्तकारन के दलित विचार कबो अधिका नैतिक आ तार्किक लउके का फेर में त कबो अधिका रेशनल लउके का लालच में, सवर्ण अछूतई के बढ़ावा देबे वाला आ बदला लेबे के भाव से लबरेज़ लउकऽता. 
राजनीति के खुला चुनाव प्रक्रिया में शामिल होखे वाला दलित मेधा, साहित्य का मंच पर सवर्णन संगे मेल-जोल, आवाजाही आ साहित्यिक प्रतिमान बनावे के नाजायज मानऽता आ साहित्य में श्रेष्ठता चुने के बन्द तरीका अपनावल चाहत बा. एह अछूतई के सबले नयका रूप ई बा कि खुद दलिते अब सवर्णन के अछूत मान के आपना साहित्यिक खिचड़ी अलगा पकावल चाहत बाड़ें आ दलित-साहित्यिक-सांस्कृतिक मोर्चा फतह क लीहल चाहत बाड़ें.
साहित्य में विषय, भाषा, शिल्प, दृष्टि, ट्रीटमेंट, आशय, उद्देश्य, प्रभाव, मूल्य, ई सब कुछ दलित साहित्य ला बेमतलब माने जाए लागल बा. अब सोझेसोझी ई होखत बा कि पहिले जाति देखऽ, तब लिखलका देखऽ आ तब ओकर मतलब निकाल के फैसला करऽ. जाति-बाधा के साहित्य में जाति के प्रेत-बाधा बना देबे के एह विसंगति के थामे आ सझुरावे का मकसदे से डॉ. तेज सिंह दलितन खातिर उपजल संवेदना के दू हिस्सा में बाँट देत बाड़े. उनकर सोच बा कि सवर्णन के रचल दलित साहित्य, दलित सहानुभूति के साहित्य त हो सकेला बाकिर दलित चेतना के ना. सवर्ण रचित दलित साहित्य में झलकत दलित सहानुभूति घुमाफिरा के अपना के मानवतावादी आ महान चिह्नावे के स्वारथ से अलगा नइखे आ दलित विचारक एकरा के घालमेल करे के कोशिशे मानत बाड़े.
दलित विचार में जाति के मसला कतनो अहम काहे ना होखो अचरज वाला सचाई ई बा कि जातिगत पहचान के सवाल अबहियों दलित का बीच बहुत सोचल नइखे. डॉ. धर्मवीर जइसन सिद्धान्तकार चाहत बाड़े कि जातियन के अस्तित्व सामुदायिक पहचान बनल रहो बस ओकरा में एक दोसरा से जातिगत दुश्मनी मत होखे. अब जातियन के सामुदायिक पहचानो बनल रहे आ एह संख्यावादी लोकतंत्र में ओहनी का बीच जातिगत दुश्मनियो मत होखे एह सद्इच्छा के ऐतिहासिक आधार का बा, ई त डा. धर्मवीरे बता सकेले. दलित विचारकन के दलित गोलबन्दी एगो राजनैतिक पैंतरेबाजी हवे. आ राजनैतिक पैंतरा ना ह त काहे डॉ. श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ के लागऽता कि ‘जो दलित साहित्य गैर दलितन के सवदगर लागत बा ऊ निमनो होईयो के संदेह का घेरा में आ जात बा.’ साफ बा कि दलित साहित्य ना सिरिफ दलिते जाति में जनमल लोग लिखिहें, बलुक अगर ओकरा साहित्यिक अवदान आ मानवीय मूल्य का चलते अगर गैर दलित ओकरा के पसंद करे लागत बाड़े त ऊ दलित साहित्य भितरघात के साहित्य मानल जाई. शरण कुमार लिम्बाले अनुभूति के साहित्यिक अनुभूति बने के रासायनिक प्रक्रिया के प्रतिपक्ष गढ़त कहेलें कि दलित साहित्य ला कल्पना आ प्रतिभा खास ना होखे ओकर प्रतिबद्धता खास होले. ई प्रतिबद्धता केशव मेश्राम के दलित प्रतिबद्धता से मेल नइखे खात ‘प्रतिबद्ध लोग के समुझ व्यापक आ लचीला होखे चाहीं. ओह लोग के लेखन, व्यवहार आ अनेके प्रतिक्रियन के एका सकार लेबे के चाहीं.’
लिम्बाले खातिर दलित साहित्य के त्रिभुज के तीन गो भुजा – वेदना, नकार आ विद्रोह के होला. अपना साहित्यो के उ साहित्ये भर कहेलें कवनो नाम ना देसु. अपना रचल के कलाकृति मानलें बाकिर ओकरा के रचे में कवनो कला तत्व के मौजूदगी के बरजलो मानेलें. कहेलें – ‘हमार कलाकृति पढ़ के रउरा आनन्द भइल, रउरा बोले लगनी कि हमार कलाकृति नीमन बा त हमरा दुख होखेला.’ मतलब कि अगर सवर्ण साहित्य कहाए वाला अगर दलित साहित्य के नोटिस लेव तब खराब, आ ना लेव तबो खराब. सवर्ण आलोचना करे तबो खराब आ सराहे त अउरी खराब. उहे दलित साहित्य श्रेष्ठ आ प्रामााणिक मानल जात बा जवन दलिते के रचल होखे, दलिते बुद्धिजीवियन से सराहल जाव आ साहित्यिक कलाकृति के रूप में सवर्ण ओकरा के कायदे के मत मानत होखसु.
जन्मना मेरिट के मनुवादी सिद्धान्त के उलट जन्मना मेरिट के दलितवादी अवधारणा पंजा लड़वला के मकसद ले त ठीक बा बाकिर ओकर असर ई होखत बा कि जनम से दलित ना होखला का चलते बुद्ध के मानवतावाद आ उनकर दलित संवेदनो आज शक सुबहा का घेरा में बा. अइसना में प्रेमचन्द के का बिसात! अच्छा बात ई बा कि पाठ आ कुपाठ फरक समुझे के प्रक्रिया खुद दलितन का बीचे शुरू हो चुकल बा. जइसे कि प्रेमचन्द के कृति जरावे के भर्त्सना करती दलित पीढ़ी आ धर्मवीर के स्त्री विषयक विचारन का खिलाफ उठत आवाजन के ले सकीलें. डॉ. तेजसिंह प्रेमचन्द के तमाम आलोचना का बादो उनका के सवर्ण लेखक भा दलित विरोधी लेखक कह के नकारत नइखन – ‘प्रेमचन्द के साहित्य दलित विचार के साहित्य ह, दलित चेतना के ना.’ एहिजा यहाँ डॉ. तुलसी राम के कहल सुनावल बेजांय ना होखी – ‘प्रेमचन्द के आधुनिक दलित कसौटी पर कसल उनुका के फांसी पर लटकवला जइसन बा.’ जबकि धर्मवीर प्रेमचन्द्र साहित्य के अपना तरीका से पढ़े के आजादी चाहत बाड़न जवन कवनो तरह से गलत नइखे. ‘प्रेमचन्द के पढ़े के आपन आपन तरीका बा. गैर-दलित उनका साहित्य के अपना तरह से पढ़ेलें … निहोरा बा कि प्रेमचन्द के दलित हितैषी साहित्यकार का रूप में मत परोसल जाय. के हमन के हितैसी बा के ना हमन के अपना ला साहित्य के आपन विष्लेषण करे दीं. हमन केहु के नुकसान करे नइखीं जात.’ (जनसत्ता, 3 अप्रैल 2011)
प्रेमसिंह चाहत बाड़न कि दलित विचार के सोझे दलिते परिप्रेक्ष्य में देखल जाव (उत्तर अवसरवादी विमर्श काल; समयांतर सितम्बर ’07) से त ठीक बा. बाकिर विरासत के मनुवादी अवधारणा का खिलाफ आवाज उठावे वाला दलित विचार, विरासत में हिकारत पवले लोगे के ई अधिकार देता कि ऊ लोग हिकारत से पेश आइल लोगन के दर्द समुझस आ दलित चेतना का साथ उकेरस. सवाल उठता कि मइला उठावे, चमड़ा कमाए, बलात्कार के शिकार होखे के दर्द आ हिकारत भरल सम्बोधन/व्यवहार के निजी अनुभव जेकरा नइखे मिलल ओह दलित लेखक के दलित-लेखन करे के हक होखी कि ना ? सीधे तिरस्कार का हालात से उबर चुकल पीढ़ी के बाद के जनमल दलित पीढ़ी के लेखन दलित चेतना के लेखन मानल जाई कि ना ? अपना खुद के अनुभव ना रहला वाला लोग सुनल सुनावल संस्मरण भा दस्तावेजी अध्ययन का बल पर शोषण, दमन, हिकारत आ संधर्ष के बात करे वाला दलित साहित्यो का ओही तरह नकली दलित-साहित्य होखी जइसन कि सवर्ण दलित-लेखन बावे ? आ कि दलित-लेखन-योग्यता आ पात्रता पीढ़ी दर पीढ़ी जारी राखल जाई. दलित विचारकन का बीच के दलितवाद से अगर कवनो नया तरह के रक्तवाद के इशारा मिलत बा त ई बहुते खतरनाक बा काहे कि हर रक्तवाद के आखिरी परिणाम रक्तपाते में होखेला.
हमनी के सकारे चाहीं कि सवर्ण जातिवाले सिरिफ जातिए देख के बिना योग्यता/अयोग्यता चिह्नले सैकड़न बरीसन से अपना सजातियन के फायदा चहुँपावत आइल बाड़े. एह घोर निन्दा करे जोग आ अवैज्ञानिक अउर मानवता विरोधी सच्चाई का साथ ही मामूली हैसियते वाला सही, इहो सच्चाई बा कि सवर्ण बुद्धिजीवी तबका में जाति सूचक शब्दन के मोह कम भइल बा. बेशक एकरा के मामूली आ निजी कोशिश मानल जात होखे बाकिर एकरा के हतोत्साहित ना करे के चाहीं. दुख बा कि दलित जातियन में जाति सूचक शब्द के इस्तेमाल रणनीति बना के बढ़ावल जात बा जवना में हो सकेला कि आगे चल के कहल जाव कि ‘गर्व से कहऽ हम दलित हईं’. निजी स्तर पर आ सामाजिक सरोकारो में जाति के प्रासंगिकता बनवले राखले के ना, बलुक ओकरा के फेरू से जिआवे के कोशिश राष्ट्रवादियन से अधिका दलिते बुद्धिजीवियन का तरफ से बेसी हमलावर तरीका से कइल जा रहल बा. नतीजा ई होखत बा कि जातिवाद, सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद के पोसे-बढ़ावे वाला लउके लागल बा. बात प्रेमचन्द के साहित्य पर सवाल उठावे, ओकरा के कमतर बतावे के लीहल जाव भा गुजरात में म्लेच्छन के सबक सिखवला के, हर जगहा दलित सवर्णन से साठ-गांठ करत नजर आवत बाड़े. दक्खिनपंथी सोच आ दलित-सोच के एकसुरिया होखे के एह प्रवृत्ति के दलित-विभ्रम के रूप में ना देख के दलित-चिंतन परम्परा के रूप में चिन्हित कइल जा सकेला.
डॉ0 तुलसीराम बिलकुल ठीक पहचनले बाड़न कि ‘दलित साहित्य साम्प्रदायिकता का मुद्दा से बिलकुल अनछुआइल बा. अइसन महत्व वाला मुद्दा से दलित साहित्य के अलग राखल ओकरा के अधूरा बनावत बा.’ (दलित साहित्य के क्लोनिंग)
सुधीश पचौरी बेशक दलित विचार के उत्तर औपनिवेशिक माहौल में अस्मिता विमर्श का रूप में देखत होखसु बाकिर दलित बुद्धिजीवी उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद,कवनो व्यवस्था में हमेशा से फायदा उठावे के जुगत भिड़ावत रहेलें ना कि ओकरा से टकराए के. व्यवस्था विरोध का जगहा व्यवस्था सहयोगे के भाव दलित विचारन में पसरल मिलेला. 
इतिहास के अम्बेडकरी नजरिया का ओर धियान खींचत मराठी लेखक लक्ष्मण माने लिखत बाड़े – ‘अम्बेडकरी नजरिया से सामान बिटोर के आपन पुरान इतिहास लिखे के होखी. शायद इहे बाबा साहब के ‘नवयान’ होखी. एह अम्बेडकरी इतिहास-दृष्टि के एगो अतहत ई ह कि चन्द्रभान प्रसाद 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के अंग्रेजन का खिलाफ नस्लवादी दंगा मानेलें. जबकि सूरज बड़जात्या के लागेला कि ‘तीन हजार साल पुरान जाति भेदभाव के बरक्स महज पांच शताब्दी पुरान नस्ली भेदभाव के राखल अन-ऐतिहासिक नजरिया बावे.’ एहसे ‘नस्ल जाति के प्रत्यय ना हो सके.’
एहिजा अंग्रेजन के खिलाफ भइल आजादी के लड़ाई का बारे में कंवल भारती के बात दोहरावल जरुरी लागऽता – ‘उनकर गुलामी ब्राह्मणवाद का चलते रहल…… साम्राज्यवाद ना त उनुका के गुलाम बनवलसि ना दरिद्र आ ना ही अशिक्षित. अंग्रेजी राज या साम्राज्यवाद दलितन के दुश्मन ना रहुवे. ऊ ब्राह्मणन के शत्रु हो सकत रहे. कुछ सामंतनो के दुश्मन हो सकत रहे. तब दलित, ब्राह्मण ला लड़ाई काहे लड़ित? …… ब्राह्मणवादो साम्राज्यवाद से अलगा चीझु ना ह. ब्राह्मणवाद भारत के पुरान साम्राज्यवाद ह जवन भारत के बड़हन आबादी के गुलाम बना के रखले बा.’
हम एहिजा बस अतने जोड़ल चाहत बानी कि अगर ब्राह्मणवाद भारत के पुरान साम्राज्यवाद ह त ओकरो ले पुरान साम्राज्यवादो एक अंतर्राष्ट्रीय ब्राह्मणवाद ह. जवना साम्राज्यवाद के कंवल भारती दलितन के दुश्मन नइखन मानत, जाहिर बा ओकरा से खतरा खाली गैर दलितने के बा. दलितों के विचारक देशी ब्राह्मणवाद के आपन दुश्मन मानेलें आ अन्तर्राष्ट्रीय ब्राह्मणवाद माने कि साम्राज्यवाद के आपन दोस्त. दलित मुक्ति आन्दोलन के नजरिया आ जुड़ाव के ई प्रस्थान बिन्दु साम्राज्यवाद के निहित स्वार्थन के कतना माफिद बा, ई धियान देबे जोग बा. अजय नावरिया भलही दलित साहित्य के ‘अन्तर्राष्ट्रीय चिंता आ सामाजिक पड़तालन के साहित्य’ घोषित करत होखसु बाकिर ‘अंग्रेज देरी से अइले आ जल्दी से चल गइले’ के मुहावरा गढ़े वाला आ हिन्दुस्तान में मैकाले के जनमदिन मनावे वाला चन्द्रभान प्रसाद अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संकट के रूप में उभरे वाला अमरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवाद आ बाजारवाद क ओरि मुक्ति के आस ले के देखत बाड़े – ‘दलित मुक्ति के आन्दोलन कतहीं अझुरा गइल बा. आ ई तबले अझुराइल रही जबले दलितन में अभिजात्य वर्ग के उदय ना हो जाव.’
अब तनिका चन्द्रभान प्रसाद के दलित मुक्ति आ ओकरा केन्द्र बिन्दु ‘अभिजात्य वर्ग’ के उदय के सपनो के मुजाहिरा कर लिहल जाव – ‘हर प्रमुख शहर में अइसन सैकड़ों दलित परिवार उभर आवें जिनका घर के गेट पर एगो दरबान खड़ा होखे, जिनका लगे टोयटा रेंज के कार होखे, कुछ एक का लगे मर्को होखे. अइसन दलित पति जिनकर मेहरारू बहरी निकले ला आजाद होखसु, जहवां मेहमान दलित मेहरारउ ढील ब्लाउज पहिरला में अपना के सहज माने.’ ‘ई सभकुछ नइखे होखत भा होखत बा त दलित समाज में वइसन बुद्धिजीवी कइसे जनमिहेंसे जिनकर आजु जरुरत बा.’ ई हवे दलित विचार के राष्ट्रीय अउर अन्तर्राष्ट्रीय चिंता आ सामाजिक पड़ताल अउर ‘सिविल सोसाइटी के अभ्युदय’ के चन्द्रभनिया कुन्जी. एह दलित विचार में दलित समाज के आखिरी आदमी कहाँ बा, एकर पड़ताल जरूरी बा जेहसे कि दलित मुक्ति आन्दोलन ओहिजा मत चहुँपे जहाँ चँहुपाए ला कंवल भारती फिकिर डूबल बाड़न – ‘आज डॉ. अम्बेडकर के विरासत पर कवनो राष्ट्रीय नेतृत्व दलितन का लगे नइखे. का राजनीति में नईकी सदी दलितन के दयनीयता के सदी ना होखी – इस अंध दलितवाद अउर भाजपा के अंधराष्ट्रवाद में कवनो फरक नइखे. एहसे ई अन्धदलितवादो दलितन के सोझा वइसने चुनौती बा जइसन कि राष्ट्रवाद के बा.’
अन्तर्राष्ट्रीय परिघटनन आ विचारधारन के रोशनी में अन्धराष्ट्रवाद के सैद्धान्तिकी आ ओकर जड़ सोर के पहिचान अगर सोझा राख लिहल जाव त एह अन्धदलितवाद के सैद्धान्तिकी आ ओकरा जड़ो के पड़ताल कठिन ना रह जाई.
अबले ऊपर हमनि का अम्बेडकरी इतिहास दृष्टि के एगो अतहत देखनी जा. अब एकर हीनभावनो देखीं. दलित लेखक बढ़ चढ़ के 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में दलितन के सहभागी होखे आ उनुका अगुवई के उजागर करत बाड़ें. माने कि अंग्रेजन क खिलाफ भइल नस्लवादी दंगा बतावल जात काम में दलित खुदहु शामिल रहले. शामिले ना बलुक ओह नस्लवादी दंगा कहात कामो के जनक मंगल पाण्डे के उकसावे के ऐतिहासिक काम ‘महान क्रांतिकारी योद्धा मातादीन (सूरजपाल सिंह के किताब) कइलन जे भंगी रहलन. उनका भंंगी होखला के रेघरियावल गइल बा. त फेर एह गैर अम्बेडकरी इतिहास दृष्टि से विरोध कहाँ रहल कि 1857, जनता के स्वतंत्रता आन्दोलन रहल. जनता, जवना में हिन्दू, मुसलमान, सिख, इसाई, दलित, सवर्ण, किसान सबही शामिल रहुवे. मेहरारूओ. बाकिर आपन बात रखला के ऐंठ देखीं कि ओही किताब में सूरजपाल सिंह लिखतारें कि ‘जलियावाला बाग गोलीकाण्ड में 200 लोग मराइल रहुवे जवना में से 185 जने अछूत रहले. गोलियन के शिकार भइल दलितन में सभा संयोजक नत्थू धोबी, बुद्धूराम चूहड़ा, मंगल मोची, दुलिया राम धोबी वगैरह खास रहलें. ( 34वां पेज) …… चौरीचौरा काण्ड में क्रांतिवीर रामपति चमार के अगुवई में 5 फरवरी 1922 के ब्रिटिश हुकूमत के चूल हिला देबे वालन में 5000 दलितन के गरम भीड़ थाना में आग लगा के 23 गो पुलिसवालन के मौत के कगारि चहुंपा दिहले. क्रांतिवीर रामपति चमार, सम्पत चमार, दुधई राज समेत 19 गो दलित सपूत 2 जुलाई 1923 का दिने फांसी पड़ के अमर हो गइले. 14 जने के उमिर कैद मिलल. अब कहाँ त 1857 नस्ली आन्दोलन रहल, सामंती आन्दोलन रहल, सवर्णन के आन्दोलन रहल, कहाँ सवर्ण कतहीं हइए नइखन. कहाँ तो गौरांग उद्धारक के भूमिका में पूजात रहलें आ कहाँ उनही के जिन्दा जरा के दलित सपूत शहीद हो गइले !
अधिका उत्साह में अम्बेडकरवादी, अम्बेडकर के एह तरह परोसेलें कि सवर्ण उनका के आसानी से ब्रिटिश साम्राज्यवाद समर्थक घोषित कर देसु. ‘अगर ई बात मानिओ लिहल जाव कि डॉ. अम्बेडकर साम्राज्यवादी भा ब्रिटिश समर्थक रहलन त फेर ब्रिटिश साम्राज्यवाद कांग्रेस के राजनैतिक सत्ता सँउपत घरी डॉ. अम्बेडकर के हिस्सेदार काहे ना बनवलसि. गुलाम भारत में एही दुनू, ब्रिटिश साम्राज्यवाद आ भारतीय सामंतवाद, के दोस्ती गठबंधन के लूट आ मौज रहल. इहे दुनू मिल के भारत के जनता के लूटत रहलें. डॉ. अम्बेडकर भारतीय सामंतवाद के कट्टर दुश्मन रहलें. ब्रिटिश साम्राज्यवाद, भारतीय सामंतवाद के पकिया दोस्त रहल. फेर तब अम्बेडकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मीत कइसे बन सकेलें ?(दलित साहित्य : तीसरी परम्परा का इतिहास, लेखक राम निहोर बिमल).
दलित विचारकन के राष्ट्रीय समस्यन के समुझ पर बात करीं त कंवल भारती कहतारें – ‘डॉ. अम्बेडकर गाँवन के भारतीय गणतंत्र के अवधारणा के दुश्मन मनलें – एहसे दलित साहित्यो गाँवन के विकास आ ग्राम पंचायत व्यवस्था के विरोधे भर ना करे बलुक ओकरा के नाशे कइला में ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद अउर पूँजीवाद के अन्त मानेला.’ डॉ. अम्बेडकर सत्तर बरीस पहिले गाँवन के ब्राह्मणवाद आ सामन्तवाद के प्रयोगशाला मानत रहलें एहसे गांवन के विकास ना बिनाशे चाहत रहलें. गाँवन के खतम क के शहरन के विकास के नीति हमनी के सरकारनो के बा. एह जगहा आ के अम्बेडकर आ मनमोहन सिंह एकमत नजर आवत बाड़ें बाकिर का ई दृष्टि समाज, देश के स्वस्थ-संतुलित विकास में सहायक होखी. ब्राह्मणवाद के खतम करे ला गाँवे खतम कर दीहल जाव त गैर ब्राह्मणवाद के माडल बनल (?) शहर बिना अन्न के कतना दिन जिन्दा रहीहें ? गन्दगी-मच्छर ना होखे एहसे विकास क नाम पर गड़हन तालाबन के पाट दिहल गइल, शहर बसा दिहल गइल. आज पचास बरीस बाद हमनी का फेरू गड़हा तालाब खोदवा के वाटर हारवोस्टिंग के सोचत बानी जा.
दलित मुक्ति के नाम पर लिखात सहानुभूति के साहित्य अपना मानवीय आचरण में एकपाठीय साहित्य के आग्रही बा आ एह आग्रह का फेर में समकालीन दलित साहित्य धोषित रूप से अतहत के साहित्य बनल जात बा. अइसने साहित्यिक अतहत नक्सलवाद से प्रभावित साहित्यो में 70 के दशक में उभरल रहे. डॉ. मैनेजर पाण्डेय नक्सलवादी साहित्य के सबले बड़ प्रामाणिक सिद्धान्तकार आ समर्थक रहल बाड़े. अचरज ना कि ई दलितो साहित्य के सिद्धान्तकार बनत बाड़ें – ‘दलित लेखन में शास्त्र में बांधे के चिंता जतने कम होखी ओतने अच्छा होखी.’
दलितो साहित्य के नक्सलवादी साहित्य का तरह यातना से जनलम चीख के साहित्य माने वाला मैनेजर पाण्डेय खुदहु जानत बाड़े कि साहित्य के जरूरी कला-गुण से अलग रहे वाला साहित्य के कवन गति होले आ नक्सलवादी साहित्य के चिचियाइल कहवाँ बिला गइल. शास्त्र से रहित शस्त्र के इस्तेमाल हमेशा अनेर आ तानाशाही जनमावेला. गोरख पाण्डेय नक्सलवादी साहित्य के जहाँ ले होखे अतहत से बचावत बचाकर पार्टी के घोषणा पत्र के नकल बने से रोक पवलें आ मनई के मूलभूत जरूरतन, सपनन अउर मानवीय अवधारणन के साहित्य में पचा पवले, ओहिजे ले के नक्सली साहित्य आजुओ सुरक्षित बा. बाकी सभ लाल सूरज के सलाम करत करत अस्त हो चुकल बा. शास्त्र के अवहेलना करके लिखाइल शस्त्रवादी दलित साहित्य के तटस्थ मूल्यांकन खुद दलिते बुद्धिजीवियन का ओर से शुरू हो चुकल बा, ई निमन बात बा. एह बारे में केशव मेश्राम के विचार देखे जोग बा – ‘मराठी में बहुते पोढ़ आ लोकप्रिय मानल जाए वाली साहित्यिक विधा ‘आत्म कथा’ के लीं, त हमहन के अनेके उदाहरण मिल जाई. आत्म कथाकार खुद के व्यवहार आ ओकरा सचाई के खुदही गवाह आ परोसेवाला होखेला. एहसे खुदही के प्रतिमान मानत मनचाहल लिखे के खतरा होला. दलित आत्मकथावन का साथहु ईहे बात होखेला.’
दलित विचारकन का मन में पनपत एह तटस्थ दलित दृष्टि के स्वागत करत ओकरा पीछे चले के चाहीं ना त दलितन के पुरोहितवाद आ पुरोहितन के दलितवाद ‘आत्म’ के परमात्म बना देबे में कवनो कसर नइखे छोड़ले. 
दलित साहित्य के आन्दोलन धर्मी साहित्य के आपन परिभाषा फिलहाल चाहे जतने आकर्षक आ खास लागत होखे, ओकर असली अन्त बाकी आन्दोलनधर्मी साहित्ये का तरह होखही के बा. दलित साहित्य के भविष्य नक्सलवादी साहित्य से बेहतर आ टिकाऊ महत्त्व के होखे, एकरा ला तमाम खुन्नस निकालू दुराग्रह आ बड़हन लकीर के डर से छोटहन लकीरन के यूनियन बनावे के रणनीति से जतने जल्दी तौबा कर लिहल जाव, ओतने निमन. सुखद ई बा कि कंवल भारती, एचएल दुसाध, मोहन दास नेमिसराय, डॉ. तेज सिंह, अजय नावरिया जइसन विचारक एह दिसाईं खुदही पहल करत बाड़े. भितरी अन्तर्विरोधन के तटस्थ आ शालीन पहचान दलित मुक्ति आन्दोलन के आगे ले जाई. दलितन के पुरोहितवाद आ पुरोहितन के दलितवादे से ना, दलित सिद्धान्तकारन के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्राज्यवाद के कुटिल चालो चिन्हत ओकरा से सतर्क रहे के होखी. साम्राज्यवाद अफगानिस्तान आ इराक के जवना तरह सभ्य आ सम्पन्न कहावे वाला बनावे के रणनीति पर काम करत रहल बा, दलित विचारकन के एकरा के समुझे के होखी. अस्मिता के लड़ाई फूट डाल के राज करे के नयका संस्करणो हो सकेला, एह सम्भावना के नकारल ना जा सके. दलित साहित्य के दलित आ बाकी के समाज के समहरता में, एके साथे देखे समुझे उकेरे के आदत डाले पड़ी. दलित विचारकन के मनसा से आश्वस्त रहतो रेघरियावल चाहब कि एकांगी नज़रिया चाहे कतनो वैज्ञानिक काहे ना होखे आखिर में जा के अवैज्ञानिके होला आ ओकर अंत हमेशा एक तरह के ठिठुरल ठहरावे में होखेला. 
दलित साहित्य में आइल ठहराव पर गौर करीं त कई बात साफ हो जाई. सुधीश पचौरी जहाँ नेतृत्व आ आइडियोलाजी के कमी के दलित साहित्य के ठहराव के कारण मानेलें ओहिजे लिम्बाले के कहना बा कि आर्थिक शोषण से कटा के खाली सामाजिके सवाल उठवला से दलित आन्दोलन थथम गइल बा. कंवल भारती एह बारे में लिखत बाड़न कि ‘बदलल दलित साहित्य महज वर्ण व्यवस्था के विरोध ले सीमित होके रह गइल बा. ऊ डॉ. अम्बेडकर के खाली सामाजिके विचार के सकरलसि, आर्थिक विचार के साहित्य का केन्द्र में राखे के कोशिश ना कइलस. बिनाशक एकर कारण ई बा कि दलित समस्या सबले पहिले सामाजिक समस्या हवे, आ आर्थिक समस्या बाद में आवेला.’
आर्थिक विचार आ सामाजिक विचार में से दलित सिद्धान्तकार कवना के तरजीह देसु, एह पर बहस करे लायक बा. दलित साहित्य में महसूस होखत ठहराव के एह दू गो कारणन से तनिका अलग, इहो देखल काम लायक रही कि सुख सुविधे के ना, कबो कबो चुनौतियन भा प्रतिस्पर्धा के कमीओ से बढ़न्ती रुके लागेला. आदमी आ समाजो मे, कबो कबो अपना कमजोरिए के लाभ उठावे के हथियार बना लेबे के आदत पनपे लागेला. जइसे कि रउरा दरिद्र ब्राह्मण, विकलांग अउर मेहरारुवन में देखे के मिल सकेला. एही हालात में गम्भीरता का साथे आ बिना जातीय कुण्ठा के, आरक्षण के मानसिकता (आरक्षण सुविधा के औचित्य के ना) के मतलबी आ कुटिल इस्तेमालो पर फेर से सोचल जरूरी बा. एह फेर से सोचला के गम्भीरते में चन्द्रभान प्रसाद डाइवर्सिटी के सिद्धान्त के सामने ले आवत रहेलें. ऊ रिरिया के ना, डंका के चोट पर तर्कपूर्ण तरीका से अपना समाज के आर्थिक प्रतिनिधित्व के बात उठावेलें. इहे ऊ पेंच ह जवना के कसला पर सवर्णन के मलिकाई में पनपत प्राइवेट सेक्टर के नस सबले बेसी दबात बा. हालांकि एहिजो मामला विवाद वाला बा. ‘संकेत’ के सम्पादक संगम के मानल बा कि कुछ लोग डाइवरसिटी के नाम पर दलितनों में टाटा, बिड़ला, अम्बानी बने के सपना देखावत बाड़े. डाइवरसिटी के पैरोकार ई भूला जात बाड़े कि बाबा साहब उद्योगन, इहां ले कि खेतिओ बाड़ी के राष्ट्रीय आ सहकारी बनावे के पक्षधर रहलन ….. डाइवरसिटी के पैरोकार अपना के कम से कम अम्बेडकरवादी ना कह सकसु. ….. डाइवरसिटी के नाम पर टुकड़खोरी ना सकारे के चाहीं.’ दरअसल एहिजा मामिला दलित-सामाजिक दर्शन के बा. चन्द्रभान के दलित सामाजिक दर्शन संगम जी के दर्शन से अलगा बा. चन्द्रभान मानेलें कि ‘भारत के यदि जातिविहीन समाज बनावे के बा त लाखों दलितन के पूंजीपति बन के गैर दलितन के नौकरी पर राखे के होखी, लाखों दलितन के हर साल गैर दलित साला, साली, सढुआइन आ गैर दलित सास-ससुर बनावे के चाहीं. एही प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटी, दलित, गैर दलित भेद खतम होखी, समाज में भाईचारा बढ़ी अउर भारत एगो सुपर पावर बन के दुनिया में आपन पहचान बनाई, इहे होई अम्बेडकर के सपना के भारत.’ 
ई एगो आधुनिक दलित नज़रिया बा जवना के पावे खातिर ‘सांस्कृतिक प्रतिशोध’ वाला लाइन छोड़ल जरूरी बा. जाति वैमनस्येना, साम्प्रदायिको वैमनस्य खतम करे के ई एगो कारगर उपाय हो सकेला. अगर मुसलमान के साला, साली, सढुआइन, सास-ससुर अधिका से अधिका हिन्दू होखसु त के केकरा के मारी ? परन्तु जथारथ के जमीन पर उतरीं त कवनो समुदाय के विचार का पीछे काम करे वाली दृष्टि के समुझे के बेहतर तरीका होला ओकरा स्त्री वाला नजरिया के परखल. दलित विचार में, दलित सवर्ण बा अउर स्त्री दलित. डॉ. धर्मवीर के स्त्री वाला सवर्णवादी विचारन के फिलहाल छोड़ दीं तबहियों दलित साहित्य में स्त्री ला दलित नजरिया बहुते मनुवादी रहल बा. गैर दलितन के रचल रचनन में सवर्ण पुरुषन के दलित औरतन साथे जबरिया (लालच, भय, आश्वासन के आधार पर) हमबिस्तर होखे के बरनन का पीछे दलितन के नीचा देखावे के मानसिकता रहल बा कि ना, ई विवाद के बात हो सकेला. बाकिर दलित साहित्य में दलित पुरुषन के सवर्ण स्त्रियन साथे सहवास/बलात्कार के वरनन एगो ‘सांस्कृतिक प्रतिशोध’ के रूप में कइले जाला, एहमें कवनो अहजह नइखे. 
‘हंस’ के दलित विषेषांक में शरण कुमार लिम्बाले के किताब ‘दलित ब्राह्मण’ के परखत मोहन दास नैमिसराय लिखत बाड़ें कि – ‘लिम्बाले के अधिकतर कहानियन में जवन रंग बेर-बेर पाठकन के कुछ सोचे पर मजबूर करेला ऊ एह रचनन के कामोत्सुकता हवे जवना के सांस्कृतिक प्रतिशोध कहल गइल बा. ‘ओछी जात का’ कहानी में ऊ कहत बाड़े कि हमरा आ नीलू के सम्बन्धन के लेके खुला बहस होखे के चाहीं. लोग के पता त चलो कि अब शूद्रन के बिस्तर पर सवर्णन के औरत आवत बाड़ी सँ. अपना खुशी से लंगटे होखत बाड़ी सँ. शूद्र सवर्णन का तरह औरतन के खींच के ना ले आवसु, ना जबरदस्ती ओहनी के लंगटे करेले. हालांकि हिन्दी दलित लेखकनो का मन में ई सांस्कृतिक प्रतिशोध जब तब उभरत रहल बा. ओम प्रकाश बाल्मीकि के कहानियन में ई देखल जा सकेला. बाकिर मराठी दलित साहित्यकार एकरा के प्रमुखता से लिहले बाड़े. नामदेव ढसाल ओहनियों में से अधिका खास बाड़न.’
तय करीं कि सांस्कृतिक प्रतिशोध आ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद में सिरिफ शब्दावलियने के समानता बा कि आचरणो के. दलितवाद अउर ब्राह्मणवाद दुनू ना केवल जातिवादी समाज व्यवस्था बनवले राखल चाहत बाड़े बलुक मेहरारूवन ला दुनू के नजरिया घिनाह, सामन्ती, अप्रगतिषील, बदला लेबे वाला आ अपने गोड़ पर कुल्हाड़ी मारे वाला बा.
एह सबके बावजूद यदि शरण कुमार लिम्बाले महसूस करत बाड़े कि आर्थिक शोषण से कट के खाली सामाजिक सवाल उठवला का चलते दलित आन्दोलन थथम गइल बा आ एकरा ला बँवारा समूहन के सहयोग जरूरी बा त एकरा के शुभ संकेत मानल जा सकेला. आज अगर मार्क्सवादी, गांधी पर फेर से सोचे के जरूरत महसूस करत बाड़े आ अम्बेडकर के फेरु से पढ़े के मन बनावत बाड़ें त दलित सिद्धान्तकारनो के आपन एगो तान छोड़त सोचे के चाहीं कि विचार के दुनिया में कुछऊ अछूत ना होला आ ना ही कवनो आखिरी साँच. कहीं अइसन त ना कि गांधी, अम्बेडकर आ मार्क्स के विचारन के मिलावटे भारतीय उपमहाद्वीप के समस्यन के समाधान बा. अछूत त मार्क्सवाद के उत्तर आधुनिक विचारो ना होखे के चाहीं. 
संगम जी के फेरू कोट कइल चाहब – ‘कुछ अम्बेडकरवादी लोग अम्बेडकरवादी होखला से पहिलहीं मार्क्सवाद विरोधी हो जालें. एकर परिणाम होला कि ऊ नवसामंतवाद आ पूंजीवादियन का साथे खड़ा हो जालें.’ अम्बेडकर अउर गाँधी के बीच चर्चित-कुचर्चित-प्रचारित टकराव लेके डॉ. नामवर सिंह परिकथा में प्रकाशित आशीष त्रिपाठी अउर आशुतोष कुमार के दीहल अपना साक्षात्कार में बहुते नया आ तर्कसंगत बात कहले बाड़न कि कइसे अम्बेडकर गांधी के बदललन आ गांधी अम्बेडकर के. भारत के पूंजीवाद जातिवादी पूंजीवाद हऽ. (डॉ. तुलसी राम) एकरा के धियान में राखे ला अगर अम्बेडकर जरूरी बाड़ें त बुद्ध के द्वंद्ववाद के धियान में राखे ला मार्क्स के धियान में राखे होई जे ओकरा के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में आगे बढ़वलें आ गांधी ? उनका के छोड़ के आजुओ हिन्दुस्तान के समुझ पावल मुश्किल बा. 
साँच के साधिकार, सलीका से कहले साहित्य होला. दलित साहित्य सच कहत रहल बा. नंगा सचाई के आखों देखल-भोगल, बेधड़क बयाने दलित साहित्य के पहचान रहल बा. अब ओहमें ‘सलीका’ वाला एगो नया तत्वो जुड़े लागल बा. ई सुख देता. बाकिर तोस देबे लायक हालात तब बनी जब दलित साहित्य ‘स-हित’ भाव लाँघत ‘सा-हित’ भाव ले पहुँची. साहित्य के सबले माथ च सरोकार इहे ह जवना के सवर्णवादी मूल्य भा नजरिया कह के लमहर दिन ले खारिज ना कइल जा सके. सौन्दर्यशास्त्र ना त तात्कालिक होला ना ही चिर स्थाई. दलित साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र, दलित समाज के दलित सरोकारने के उपज ह आ होखबो करी. शिक्षा के बाघिन के दूध पी के बड़ होखत एह अलिखित सौन्दर्यशास्त्र के मकसद एगो नया साहित्यिक-सामाजिक संरचना बनावल बा. बाकिर भुलाए के ना चाहीं कि हर समाज का तरह दलित समाजो कवन जड़ सामाजिक संरचना ना ह. ना ही दलित सरोकार ठीक ठाक उहे रही जवन सत्तर-अस्सी बरीस पहिले अम्बेडकर युग में रहल होई. दलित समाज तबसे बहुते बदलल बा आ दलित सरोकारो बदलल बा, जाहिर बा कि दलित साहित्य आ ओकर सौन्दर्यशास्त्र जवन जइसे बन-बनात रहुवे, बदले लागल बा. ई प्रक्रिया जतना समाज में बा, ओहले अधिका साहित्य में नजर आवत बा. एह बदलाव के महीन पहचान जरूरी बा. दलित साहित्यकारन-विचारकन के एगो बड़हन तबका अइसन बा जे एह पहचान के पकड़ पावे में या तो असमर्थ बा भा जड़त्व सिद्धान्त के शिकार बा. बहुते सगरी चीज कबो दलित साहित्य ला जरूरी रहल होखी, जइसे कि ‘घिन’. बाकिर तीस बरिस पहिले के सोच अब अप्रासंगिक होखत जात बा. एकरा के ऊपर आइल चन्द्रभान प्रसाद के समरस समाज के सोचावट आ ‘सांस्कृतिक प्रतिशोध’ के सोचावट के फरक से समुझल जा सकेला. हम आपन बात साफ करे ला मुक्तिबोध के दुहराएब कि – 
‘साहित्य क्षेत्र में जनता तबहिये सक्रिय हो उठेले जब ओकरा में कवनो व्यापक सांस्कृतिक आन्दोलन चलत होखे. अइसन आन्दोलन जवन ओकरा आत्मगौरव आ आत्मगरिमा के जमावत होखे…… याद करीं हमन के भक्ति आन्दोलन के शुरु वाला आध. ओहू बेरा शास्रीय कलाकार आ पंडित-कवियन का तरफ से ओकर विरोध भइल रहुवे. काहें कि साहित्य तुच्छ आ विद्रूप रहुवे…. चूंकि जनता खुदे साहित्य रचत बिया, एहसे लेखकन के बेशुमार भीड़ होखल स्वाभाविके बा, साथही इहो स्वाभाविक बा कि जनता के जनमावल सगरी साहित्य वास्तव में नीमन वाला ना होखे…… समय के कसौटी पर जवना लेखकन के साहित्य खरा उतरी उहे प्रतिभावान कहलइहें. बाकिर एकरा ला जरूरी नइखे कि सभका के लिखे दीहल जाव, ओहनो के ना जे पेशेवर साहित्यिक ना हउवें….. साहित्य में पेशेवर साहित्यिकन का चलते जिनिगी के विविधता उजागर ना हो पावे, जिनिगी के असली तजुर्बा सामने ना आ पावे आ ऊ जीवन मूल्य स्थापित ना हो पावे जवना ला आम आदमी लड़ाई करेला.’ (मार्क्सवादी साहित्य का सौन्दर्य पक्ष : पुस्तक ‘आखिर रचना क्यों’ में संकलित)
मुक्तिबोध के एह विचारन के रउरा दलित साहित्य पर लगा के देखीं, तमाम आग्रह-दुराग्रह साफे लउके लागी आ इहो कि तब से अब ले के दलित साहित्य में का अउर कतना बदलाव आइल बा.
हिन्दी के आदि कवि, बाल्मीकि के सूत्र वाक्य – ‘आह से उपजल होई ज्ञान’ के बाल्मीकि के दलित होखला का बावजूद आधुनिक दलित सौन्दर्यशास्त्र के परिभाषित करेवाला खारिज क दिहलें. आरोप ई कि ई सवर्ण समर्पित-समर्थित सोच हवे काहे कि ओह घरी दलित काव्य जइसन कवनो सोचावट गैरहाजिर रहुवे. आधुनिक दलित कविता ‘सामाजिक आर्थिक पाखण्ड से बोवल सामाजिक अउर आर्थिक गैरबराबरी के बलबूते एगो आदमी के दोसरका आदमी साथे अमानुषिक अपमान, अतार्किक अन्याय अउर जघन्य उत्पीड़न से उपजल आक्रोश, प्रतिकार आ प्रतिशोधजन्य भाव के बयान ह जवना में बस आह भरत अत्याचार झेले के सेतबांध टूटे के संकेत साफ बा आ व्यवस्था के चुनौती देत व्यवस्था परिवर्तन खातिर प्रतिगामी ताकतन के तिक्खर भर्त्सना-आलोचनो बा.’ (विक्रमा राम विप्लवी के लेख सदीनामा – 10, कलकत्ता). 
जाहिर बा कि दलित चिंतन के मुताबिक ‘वियोगी होखी पहिला कवि’ कहे वाला दलित कवि वाल्मीकि के ई सवर्ण माइण्ड सेट रहुवे. ‘दलित कविता एह अनुकूलन के खिलाफ ओही तरह खड़ा होखे के कोशिश करेले जवना तरह वर्ण अउर जाति के नाम पर कइल अत्याचारन के प्रतिरोध करेले.’ (पंकज गौतम : हिन्दी दलित कविता का समाजशास्त्र, सबके दावेदार, अंक 58)
साहित्य के मूल्य सार्वभौम होला आ नाहियो होला. वाल्मीकि के ‘आह’ कबीर के ‘हाय’ में बदलल आ आज ‘हुंह’ के हुंकार में जाहिर हो रहल बा. साहित्य मनई के संघर्ष-गान है, बाकिर तबहियों जब मनुष्य के परिभाषा में अउर मनुष्यता के परिसर में दलित-दमित, कमजोर, वंचित अउऱ मेहरारउवो आवत होखऽ सँ. सिरिफ वोट-अधिकार के बरोबरिए से ना, देश काल में मौजूद सगरी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक स्वतंत्रता-सम्पन्नता अउर सम्मान के ऊ बराबर के हकदार होंखसु, जहवां अइसन नइखे ओहिजा साहित्य के सार्वभौम मूल्य लगातार सवालिया बनत रहेलें आ ओकर महत्त्व अशांत होखत जात दुनिया में ‘ओम शांति, शांति, शांति’ से अधिका कुछऊ ना होखे. वर्ग विभाजित समाज में एही गैर बराबरी का चलते साहित्य के दू गो धारा बहत रहल. मार्क्स के वर्ग विभाजित समाज के सोचावट में अम्बेडकर के जाति विभाजित समाज के सोचावट बड़हन तोड़फोड़ कइलसि आ शोषण का खिलाफ लड़ाई के बँवारा सोच के घुमा फिरा के मजगरे बनवलसि. 
सैकड़न बरीस से अनचिह्नाइल, अपरिभाषित रहल दलित संस्कृति अब सवर्ण संस्कृति के ओकरा आसन से हटावत समाज के लगभग मुख्य सांस्कृतिक चेतना बन गइल बा. साफ बा कि दलित संस्कृति के बतावे वाला साहित्यो मुख्यधारा बने का ओर बढ़ल जात बावे. बाकिर ई तबे संभव हो पाई जब दलित संस्कृति मध्यवर्गीय चेतना से आगा बढ़के वृहत् दलित समाज के चेतना बन जाव. अबहीं अपना पहिला डेग में चलत दलित आन्दोलन के ई दुसरका डेग होई. एकरा ला अबहियों अशिक्षित पड़ल दलित आम समाज में दलित काव्य-संस्कार के बोवाइल जरूरी बा. कुछ वइसने जइसन आम सवर्ण समाज में राम, रामायण आ गंगा ओकरा खून में बसल बा. भक्तिकाल में ई काम कवि लोग अध्यात्मिक जड़ता-गुलामी तूड़े में कइले रहुवे. 
‘आह’ से भलही मत उपजल होखे, बाकिर आधुनिक दलित साहित्य ‘शिकायत’ से जरूर उपजल बा. साल 1914 में हीरा डोम भोजपुरी में ‘अछूत के शिकायत’ कविता में कइले रहले. शिकायत से शुरू एह दलित साहित्य में आज प्रतिरोध बा, आक्रोश बा अउर संधर्ष बा आ सबले अधिका बा स्वाभिमान के तत्व. दलित साहित्य के अगिला डेग ‘आत्म मंथन’ वाला होई. दिशाहीन आक्रोश विध्वंसक होखेला. खुद अपनो ला. दलित साहित्य नक्सलवादी साहित्य वाला अन्त मत पा जाव, दुहराव, बासीपन अउर बड़बोलापन के शिकार होके अलगा थलगा मत पड़ जाव, एकरा ला ओकरा अपना भीतर के खीस, जायज खदबदात खीस के, प्रतिशोध भाव से बचावत प्रतिकार भाव में ले जाए के होई. साहित्य कवनो होखे, समाज बनावे के कवनो सैधांतिकी होखे, औकर आखिरी मकसद समरसता-समानता-स्वतंत्रते होले. दलित साहित्य के अगिला आत्मसंघर्ष ओकरा के समरसता के साहित्य बनावे के होखे के चाहीं. एह जरूरत आ अगिला डेग के सुगबुगाहट शुरूओ हो गइल बा. जाति के सोर पर खाड़ दलित विचार ला ओमप्रकाश बाल्मीकि के नइकी लाइन बा – ‘दलित लेखन में जातिवाद ला कवनो जगहा नइखे.’
दलित साहित्य अगर अन्याय, उत्पीड़न, सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी से आजाद होखे के साहित्य ह त एकरा मुक्ति तबहिए मिल पाई जब ई अपना साथे-साथ गैर दलित साहित्यो के आजाद करा सके.
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लेखक परिचय:-

नाम: देवेन्द्र आर्य
पता: ए - 127, आवास विकास कालोनी 
शाहपुर, गोरखपुर – 273006
मोबाइल: 09451565241 आ 09794840990
मेल: devendrakumar.arya1@gmail.com
अनुबाद: डॉ ओम प्रकाश सिंह
साभार: भोजपुरिका
अंक - 53 ( 10 नवम्बर 2015)

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