अकेले - आचार्य महेन्द्र शास्त्री

छोड़-छोड़ आसा अकेले नाव खोल रे।

ऊ खूब नीमन गइला पर जननी
लगेला सुहावन सुदूर वाला ढोल रे।
अब-तक उनकर मुँह हम जोहनी
निमने भइल कि खुल गइल पोल रे।

काम का बदले बदला दीहल
लटकवला से टरकावल भल
ना सँपरे तब-साफ-साफ बोल रे।

दउड़वला से फल पइबे ?
काहे खातिर टालमटोल रे।

नाहक सबकर दुश्मन बन-बन
कहलइबे तें एक भकोल रे।

बेहोसी में व्यर्थ परीक्षा
नम्बर मिलजाई एगो गोल रे।

तब तें पोंछिये बनल रहबे
तब तोर कइसे होई मोल रे।

अबहूँ से आपन आदर कर
कठपुतरी बनकर मत डोल रे।

ठोकर-पर-ठोकर तें खइले
न मनले तब मिल गइल ओल रे।

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लेखक परिचय: -

जन्म: 16 अप्रैल 1901
निधन: 31 दिसंबर 1974

जनम अस्थान: रतनपुर, सारन (छपरा), बिहार
भोजपुरी औरी हिन्दी के साहित्यकार  
संस्कृत क बरिआर विद्वान
परमुख रचना: भकलोलवा, हिलोर, आज की आवाज, चोखपा

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