दिलीप कुमार पाण्डेय जी के पाँच गो कबिता

काब्य साहित्य के अईसन विधा हऽ जेवन ना कुछ कहि के भी बहुत कुछ कहे ले। तऽ कबो-कबो काल्ह, आज औरी काल्ह सभ देखावे ले। तऽ ओही जा कबो-कबो हाथ धऽ के एगो अइसन दुनिया में ले के जाले जहाँ जाए वाला पर रहेला कि ओह जगह से का ले के आई। अ इसन काब्य में बात सोझ-सोझ ना कहि के प्रतीकन के हाथ धऽ के कहेला। कुछ अ इसने कबिता बाड़ी सऽ जेवन दिलीप कुमार पाण्डेय जी के लेखनी से निकललऽ बाड़ी सऽ। पहिली बेर रऊआँ पढि के निकल जाईब औरी लागी की बस कुछु ना कुछु कबिता बाड़ी सऽ लेकिन जब आराम से धियान देब तऽ कुछ औरी ल उकी। कुछ रचना चलत आवत ढंग के बाड़ी सऽ जेवन ओहे बात कहत बाड़ी स जेवन सबद कहे चाहत बा।
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       केहू दाँत बनवाई

दाँत बनवावे भुअर डाॅक्टर लगे गईले
एगो दाँत के बनवाई एक हजार फरमईले।
बेसी बनवईला पर कुछ छूट हो जाई
हऽ आई ओही दाम में चार गो बन जाई।
बटुआ टो टा के भुअर भईले तईआर
दाँत बनावे के डाॅक्टर निकलले औजार।
दाब दूब के ठोक ठाक के दाँत लागल
भुअर अब खुश भईले बुढापा भागल।
रात के खूब चैन से भुअर सुतले
दाँत ना भेटाईल जब सबेरे उठले।
बिछावना तकिया चदर सभ झाराता
गले आला दाँत रहे ऊ कहाँ भेटाता।
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           संदेश

ए हवा तू देअईतऽ ई संदेश प्रीतम के,
भाड़ा तोहरा ना लागे आवे आउर जाए के,
उनका से कह देते होली में आवे के।
बाट उनकर जोहे नी बिरहा में जर जरके,
ए हवा तू देअईतऽ ई संदेश प्रीतम के।
सेजीआ अब काटे धउरे निनिओ ना लागे,
बड़ा जबुर लागेला जब बबुआ रोए लागे।
सब काम करेनी हम अकेले मर मर के,
ए हवा तू देअईतऽ ई संदेश प्रीतम के।
कईसे हम रही सभे से मिल जुल के,
नन्दी तार बना देतिआ छोटहनो बातवा के,
ए हवा तू देअईतऽ ई संदेश प्रीतम के।
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        खबरी

खर खबरी तऽ खबरे नु लिही
लिखी ऊहे जवन लोगवा दिही।
गुरूजी के कईसन बाटे हाल
फगुआ के अब ठोकाता नु ताल।
नईखी ऊहाँ का तऽ चल गईनी
कमे उमर में स्वर्गवासी भईनी।
ई समाचार रहे बारा मनहूस
छापिओके हम ना होईती खुश।
सोचनी हम मन में ईहे बा रीति
एंगऽ जाएआला पावे सदगति।
फफक फफक रोअनी जाए का बेरा
चारो ओर रहे चहेता लोग के घेरा।
ई सुन दिमाग के नस झनझनाईल
गुरुजी के गईल समझ में आईल।
सेवा पूरा भईला के रहे ऊ बिदाई
हम तऽ कुछ आऊर बुझनी हऽ भाई।
बनल रहीं ऊहां का सय बरिस जिहीं
खर खबरी तऽ हरदम खबरे नु लिही।
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          खेत खईलस

लाठी भाला लेके होता खेत के रखवारी
चतुर भईसा लुकाईल बा बाँस काआरी।
अतने में बैल तुरईला के भईल हाला
दउरल लोग बैल धरे फेक के भाला।
मौका पाई भईसा मकई गईल चर
दूरे से चिल्लाते रह गईल लो धर धर।
रमत झमत भईसा सडक पर आईल
ढेर दिन बाद कचराईल मकई रहे भेटईल।
बडल जोरदार खिस देख मकई के दासा
भईसा के फसावे खातिर फेके परी पासा।
एक दिन सांझहीं भईसा खेत में समाईल
लागल जब बर्छी खेतवाह नजर आईल।
ओकरा बाद भईसा छोडलस बाधार
भईस पोसे आला लोग का भईल दिकदार।
दूटंगरिआ हमरा पर परल आज भाड़ी
फेरू ना जाएब हरीअर खेत का आरी।
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             काहे हो

हमरा करेज हर कतरा में तू बसेलऽ,
फेर काहे तू हमरा के हरमेशा छलेलऽ।
पहिनी साड़ी तऽ हम भईनी आनाड़ी,
जे झारे जींस उ भईल बाडका खेलाडी।
दासी हई ताहार अनहेर जनी करऽ,
खानदान का मान मर्जादा से तऽ डरऽ।
सभ कुछ मानेनी जवन जवन तू कहेलऽ,
फेरू काहे तू हमरा के हरमेशा छलेलऽ।
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लेखक परिचय:-

बेवसाय: विज्ञान शिक्षक
पता: सैखोवाघाट, तिनसुकिया, असम
मूल निवासी -अगौथर, मढौडा ,सारण।
मो नं: 9707096238
अंक - 23 (14 अप्रैल 2015)

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