दिलीप कुमार पाण्डेय के चार गो लघुकथा

कठ मउग

संदेस परीक्षा खत्म भइला का बाद अपना चाचा का लगे गइलें। गांव के रहल लइका खेत-बधार टोला-परोसा में घूमे के आदत चाचा का काम में जाते बेचारू घर में बइठल अगुता जास।एक दिन आपन तकलीफ चाचा से कहलें। चाचा भतीजा के परेसानी दूर करेला अपना संघतिया असोक से संदेस के जान-पहचान करा देलें आ उनसे कहलें जे हमरा काम में चल गइला का बाद इनकर घर में मन लागत नइखे त कबो काल्ह तहरा लगे आ जइहें। असोक के एगो दोकान रहे। आ उनकर घरो ओजा से कवनो बेसी दूर ना रहे ।संदेस असोक के चाचा कहे लगलें आ उनका मेहरारू के चाची। जान पहचान भइला का बाद असोक का घरे आना जाना सुरू हो गइल।संदेस का डेरा से सय डेग गइला का बाद मोड़ आवे आ मोड़ से दहिने हो कुछ दूर गइला बाद बायें ओर जवन पहिला गली आवे ओही में लगभग दू सऽ डेग बढ़ला पर असोक के घर रहे।

संदेस रूप रंग आ कद काठी के बनइता रहस। जेने चलस ओने लूकाइयो के लोग एक नजर देख लेवे। अपना घर से निकल जब संदेस असोक का गली में घुसस त् एगो घर का बरंडा में खड़ा लइकी इनका-के देख मुस्काए। ई बेचारू भल लइका नजर नीचा क जेङ मरखाह माट साहेब से बिद्यार्थी नजर ना मिलावे ठीक अउसहीं आगा बढ़ जास। उनका आगा बढ़ते उ लइकी तनी जोड़े से केवाड़ी बंद क देवे। ओकर कोसिस इनकर धियान अपना ओरी खींचल रहे। अइसन खेला चार पांच दिन चलल। बेचारू संदेस बाघ का मुंह से निकलला जस ओह घर के पार कइला प महसूस करस।

ओह लइकी के आना-जाना असोको का घरे रहे। उ असोक का मेहरारू जेकरा के भउजी कहत रहे से संदेस का रूप-रंग आ गंभीरता के प्रसंसा कर उनका बारे में सब जानकारी ले लिहलस। संदेस के गांवे खातिर टिकट बन गइल रहे। उ असोक का घरे जा-के कहलें "चाची आउर हम चार दिन बानी सनिचर के चल जाएम। रउओ कबो गांवे जाए-के होई त् हमनी का घरे जरूर आएम।"

"ठीक बा अबकी बेर गइला पर रउओ घरे जरूर जाएम।" अतना कह उ चाय बनावे चल गइली।

एने उ लइकी केवाड़ी लगे सट सब सुनत रहे। उनका हटते संदेस के हाथ ध-के लागल कहे "तू कइसन आदमी बारऽ, हरदम तहरे राह निहारत रहेनी, तहरा के देखते हमरा मन का कतना आनंद मिलेला उ कह नइखीं सकत। सायद ओतना आनंद चांद के देख चकोर का ना मिलत होई। हम ई जीवन तहरे नाम क देले बानी। हम तहरा बीन रह नइखीं सकत। तहरा प्यार में अतना डुब गइल बानी जे सुतत जागत, उठत बइठत हर घड़ी, हर जगह बस तहरे चेहरा नजर आवऽता। लोक-लाज सब छोड़ हम तहरा संगे जीवन बीतावेला तइयार बानी। हमरा के,अपना लऽ।"

ई सब सुन संदेस के ठकुआ मार देहलस। जब होस आइल त हाथ झटक-के छोड़वले आ कहलें देखऽ प्यार कवनो खराब चीज़ ना हऽ। बाकिर एकरो एगो दायरा बा ।हर घर हर परिवार के मान मरजादा बा ।हम एगो अइसन परिवार आ समाज के अंग हईं।

जहाँ अमर्यादित कारज निषेध बा। अपना मन पर काबू करऽ, घबरा जन तहरा भाग में जे होई उ जरूर मिल जाई।
लइकी नाक चढ़ा आ मुंह अइंठ के कहलस "तें कठ मउगा हवस का रे?"
-------------

मछरी

देवाली आवते सन ८८ ई.के घटना मन परेला। बी.एस.सी के दुसरका साल रहे ठीक दिवाली का एक दिन पहिले सत्या भाई नित्या भाई बबलू आ ढुनमुन का संगे हमहू पोखरी कीओर चल देहनी। गांव में जवन घरारी बा उ कादू पोखरीए का माटी से बनल बा। अईसे त उ चार बिगहा में पसरल बा लेकिन देवाली का बेरा ले पानी समेटा के एक बिगहा में रह जाला। दलानीचक पर से खोलल मच्छरदानी से चारो जाना मछरी लागला लो छाने,एक घंटा बीतलो का बाद पांच गो डेरवा से बेसी कुछ ना मिलल। सभे फेने फेन हो गईल रहे।

मछरी ना मिलला पर लाज के बात होई ई सोच सभे चिंतित रहे। सब लोग पोखरी का कगरी बईठ सोचते रहे जे हमनी मच्छरदानियो नसनी आ मछरियो ना मिलल,अब का कईल जाव। अतने में रेलवई पर से केहू चिल्लाईल "हमरा खेतवा में मत मरिह लोग हो, दीअरी छठ बितल ना त् ताले तहनी शुरू कदेले? उनको कहल ठीके रहे।गांवे ई परंपरा रहे छठ का परना का दिन ले गरहा- गुरूही के मछरियन के बचा के राखे के।लेकिन लईका के जीव सुतार का आगा परंपरा कहां देखेला? 

हमनी का पता रहे जे जवना खेत में छनावल जाता ओह खेत के मालिक कलकता गईल बारें अपना भाई से भेंट करे आ अहहीं ले लौटल नईखन। एह से टोकेआला का बात के परवाह कईले बीना आराम कईला का बाद मच्छरदानी के एगो कोना हमहू धईनी ई जानते हुए कि अगर मछरी मिलबो करी त् माई बनाई ना तबो, मन बहलावे खातिर। बाकी संघतिया लोग के घर मछरियाहा रहे। ओह लो का लगे आरसी सरईला सब जोगार रहे।लेकिन हमरा घर अनदिना में मछरी आवते कांय-कुच होखे लागे ,ई तऽ परब के समय रहे। इयाद बा करवाईन हांथे कल छदेला पर कल के लुकारी से जाडल जाव ।माने करवाईन जीव के जंजाल। मुर्गाखउका लोग का आउर संकट रहे। हेह घडी मछरी ले गईला पर झंझट होईबे करीत। तबो हम चल गईनी।

माई अकेले घर रहलीे एह से हरदम काम करत-करत हराने रहस। दिवाली के सर सफाई लिपाई पोताई हो गईल रहे। बाबू माल जाल ला पगहा कीने मरहौरा गईल रहस। ताले हमरो मोका मिल गईल संघतिया लोग के जोजना मे शामिल होखे के। लेदी-पानी कईए देले रहीं। बस नदहा पर बैल बान्हे के रहे। माने दुआर पर के अपना जिम्मेआला काम के ठीक-ठाक कईके गईल रहीं। 

मच्छरदानी लेके बेसी से बेसी तीन डेग बढल होखेम ताले पानी में ठेस लागल आ हम गिरे से बचेला दहिना हांथ रोप देनी। हमार हाथ ईंटा पत्थर बा कवनो चीज का खोपडी पर परला अईसन बुझाईल। मने मने हम डेराए लगनी काहे कि बगलें में खडहुल रहे जहाँ मरल लडिकन के गारल जात रहे। हमरा ढेमनी आ सरली के मरल ईयाद रहे। जोगेश्वर बाबा के बातो ईयाद परे।उ हरदम कहस जे डाईन मुअल लईकन के कबर से निकाल के दशहरा में तेल कूंड लगा खेलावे ली सऽ। कही उहे जल्दी में मत फेंक देलें होखऽस ई सेचते रहनी ताले बबलुआ चिल्लाईल फंस गईल फंस गईल बरारी फंस गईल। देखऽतानी जे मछरी त् मच्छरदानी के हिला के बीगल देलें बीया। झट ओकरा के निकलाईल आ दोसरका छाना मारे के शुरू भईल कुछे देर में एके संगे दूगो आउर बरारी फंस गईल। सभे के मन खुश हो गईल, उत्साह मे आउर छाना खीचाईल। बरारी के उजाह छटकल रहे, दूगो आउर बरारी भेंटा गईल। मालो जाल करेकेे बेरा बीतल जात रहे। पांच गो बरारी ले हमनी चल देनी।

रास्ता में कय आदमी पूछल मिलल ह कि ना? हमनी कह देनी पानी बेसी रहल हऽ कम होई तऽ मिली आज ना मिलल हऽ। बबलुआ का घरे मछरी बंटाईल। माई का आ बाबूओ का पता चल गईल रहे जे बबुआ गईल बारें मछरी मारे। घरे पहुंचते माई कहली "ले अईलऽ अथरबन-- जा आज बाबू तहार ठीक से हजामत बनईहें। कहां ले तूं छोट भाईयन के ज्ञान बंटतऽ अपनीहीं गलती करऽतारऽ। आज लूकाईए के रहिहऽ।

अब के मछरी बनावे का फेर में बा, पांचुल मे मछरी लूकाके हमहूं लूका गईनी। रात खा जब बाबू घरे तऽ हम बथानी में। ओजनी के दृश्ये अलग रहे ,कुर्सी के चारो गोर चार जगे, टेबुल छितराईल, नोट्स टुकडा-टुकडा ऊहो टुकडा़ कईसन ना मिलल लाॅटरी का टिकट अईसन टुकड़ा -टुकड़ा। छोट भईयवो खूब हंसऽ सऽ आ कहऽ सऽ "स्वाद मिल गईल नू मछरी के? फेर से सब नोट्स जोगाड करे के परल। नोट्स का जोगाड में धनगरहां के उमेश चाचा बहुत मदद कईनी। तब से कवनो काम कुटायमा ना करीं।

एही घटना का बाद मछरी मारल छुट गईल। कुछ दिन बाद खाईलो छुट गईल। अब तऽ चेंवर चांचर पोखरा पोखरी सब सुखले रहऽता। का केहू मछरी मारी।

टुटलका कुरसीया बथानी में आजो एक ओर परल बा। बुझाला जे कहत होखे" तहरे चलते हमार ई दशा भईल।कतना लोग आईल गईल लेकिन हम केहू के बईठा ना पवनी। आखिर तहार मछरियो गईल आ हमरो के जिआन करवईलऽ"।
------------------------

कुंवार बिधवा 

जीवन के बडकी भउजाइ जवन बिआह का दूसरके साल मुसमात हो गइल रही बहुत दिन से उनका के बोलावत रही। जीवनो बहुत दिन से सोचत रहस भउजाइ से भेंट करेला। लेकिन संजोग ना बनत रहे। बिधवा बिआह के तमाम बिरोधो का बादो जीवन के बाबू सावित्री के बिआह दूर का रिश्तेदार जलेसर से कऽ देले रहस। जलेसर अपना पुरनका गांव से कोसहन दूर पहाड़ का किनारे बसल एगो गांव में आपन घर बना लेले रहस। 

जीवन का दूइए बरिस में अपना भउजी से बहुत लगाव हो गइल रहे। एह से उनका भउजी के देखे के मन करत रहे। आठ साल पहिले के सब बात इयाद करत जीवन टमटम से शांतिपुर ला चललें। गांव से दौलतपुर बस अड्डा अइलें। दौलतपुर से सकलडीहा खातिर बस मिलल। सकलडीहा से शांतिपुर जाए के रहे। सकलडीहा ले बस से गइला का बाद उनका शांतिपुर खातिर कवनो सवारी ना मिलल। 

बेरा डुबे में एक घंटा ले बाकी रहे। कवनो सवारी ना मिलला कारण उ पैदले चल देलें। अनजान रास्ता में जाए के रहे एह से झटकल जात रहस। कुछ दूर गइला का बाद जंगल मिलल। जंगल का किनारे एक आदमी खेत अगोरत रहे। 

उ अगोरनिहार से पूछलें "हइ रास्ता शांतिपुर चल जाइ भाई"? 

उ कहलें "हं हं बस जंगलवा पार करते बुझीं जे शांतिएपुर हऽ"। 

"किरिण लूक-झूक करऽता जंगलवा में कवनो जनावर ना नू निकसे "?जीवन पूछलें 

"कबो काल बाघ आ हाथी निकले लें सऽ,लेकिन कवनो नोकसान ना करऽ सऽ" रखवार कहलें।

जीवन मने-मने सोंचे लगलें "बाघवा हथिया एह लोग के चिन्हित होइंहें सऽ एह कुछ ना करत होइंहें सऽ बाकिर हम तऽ नाया बानी पता ना का होइ? 

चिडई चांव-भांव लगइले रहली सऽ। बेरा डुब चलल रहे। अतने में हाथी का चिकरला के आवाज जीवन का कान में परल। उ लगलें दउरे दउरत-दउरत जंगल के पार कऽ गइलें। सामने गांव का घरन के दीया लउके लागल। उ दूनु हांथ जोड के भगवान के गोर लगलें। जान बचला खातिर भगवान के धन्यवादो देलें। गांव का एगो लइका से पूछ उ अपना भउजी का घरे पहुँचले।

दुआर पर भउजी के देख उ तऽ चिन्ह गइलें। लेकिन भउजी ना चिन्हली। जब आपन नाव बतवलें तब उ चिन्हली।देवर के देख उनका खुशी के ठेकाना न। जीवन के घर में बइठा समाचार पूछली।


"पढाई-लिख होता नू?" सावित्री पूछली।

"हं भउजी एम बी बी एस के फाइनल परीक्षा देले बानी एक महिना बाद रीजल्ट निकली"-जीवन कहलें।

बहुत नीक अब तऽ डागडर ला डागडरे कनिया खोजे के पडी बुझाता। तनी देर हंसी मजाक कइला का बाद उ पुआ-पकवान बनावे में लाग गइली। सभ लोग एके साथे खाना खइल। एकरा बाद बर-बिछवना भइल आ सभ लऽ सुत गइल। 

"ए माई हउ असोला में के थुतल बा ले?", गुड्डू पूछलें। 

"आरे इ तहार जीवन चाचा हवें", बसांव के सावित्री कहली। 

एह लोग के बात सुन जीवनो जाग गइलें। भउजी इ लडिका?"

ए बबुआ इहे नू एक जाना बारें, राउर भतीजा।"

"अच्छा, ए बाबू आव हेने संगे खेलल जावऽ घुघुआ माना उपजे धाना। बबुआ खाए दूध भातवा बिलइया चाटे पतवा। पतवा उधियाइल जाय बिलइया लाजाइल जाय। बबुआ हाडी पतुकी फोडलस सम्हरिए बुढिया रे. हें हें आउल एक बेल।"

"ए बबुआ खेलावल छोड़ नेहा-धोआ लीं जलपान तइयार बा" सावित्री कहली।

ठीक बा भउजी कह उ बथानी कावर नहाए ला चल देलें। नहा-धोआ के सब लोग एके संगे जलपान कइल। जलेसर जीवन के संगे ले गांव घूमे चललें। जेने जाए लो ओनहीं सब लोग पूछे इ के हऽ हो? जलेसर कहस "भाई हऽ डागडरी पढेला।"

धीरे-धीरे संउसे गा जीवन के जान गइल। गांवे के लोचन काका ओह लो के चाह पिआवेला अपना दुअरा बइठलें ताले हल्ला पडल "जा सुनीतवा के कुकुर हबक लेहलस"। सब लोग दउरल ललन का घरे पहुंचल, जीवनो गइलें।कुकुर बडी हबकाह रहे उ सुनीता का दहिना गोर का एडी से एक बीता उपर के गंभीराहे मांस नोच लेल रहे। खून तरा-तर बहत रहे। 

जीवन आपन बैैग मंगवा के मरहमपट्टी करे लगलें। उ सुनिता के रंग रूप देख मने मने मोहित हो गइल। मन में उनका बतासा फुटे लागल। जीवन का सुनीता के घाव ठीक करे के जिम्मा मिल गइल। रोगी आ रोग के देखल उनकर रोज के काम हो गइल।

सुनीता का चउदे गो सुई लेवे के रहे। सरकारी अस्पताल उनका गांव से पांच कोस दूर रहे। उनका जाए खातिर बैलगाड़ी के बंदोबस्त भइल। एक दिन जंगल पार करत समय जीवन सुनीता से कहलन "तहार घाव तऽ अब दू-चार दिन में ठीक हो जाइ लेकिन हमार घाव त बुझाता जनम भर रह जाइ।"

"इ कइसन घाव तोहरा हो गइल बा ए डाक्टर बाबू बतइब कुछ?" सुनीता कहली। 

जीवन कहलें, "आज रहे द दोसरा दिन बताएम"

"ना तोहे हमार कसम आजे बतावे के पडी "

"कहीं तूं खिसिया जइबू तऽ"

"ना खिसीआएम बोलऽ ना पहिले"

"हमरा तोहरा से प्यार हो गइल बा"

"हमरो डाक्टर बाबू ,हमरा तऽ रात खां निने नइखे आवत, करवट बदलत बिहान हो जाता, दिल बेचैन हो जाता, पानीयो के स्वाद फीका लागऽता, एकर दवाइ कवनो होखे तऽ दऽ" कह सुनीता जीवन के भर अकवाडी धऽ लेहली। 

गडीवान बैलन का ओर इशारा करत लागल कहे "अइ हट-हट सीधा चलऽ सऽ इ का ! इ सुन सुनीता से जीवन अलग भइलें। 

सुनीता के घाव ठीक हो चलल रहे। एह लो के प्रेम-कहानी सब लोग का पता चल गइल रहे। एक दिन सुनीता के बाबू जलेसर से कहलें "हो जलेसर जीवन आ सुनीता के अगर बिआह कऽ दिआव त कइसन रही ?"

"बहुत नीमन होइत बडा सुनर जोडी बइठित, लेकिन एकरा खातिर जीवन का गांवे जाए के पडी" जलेसर कहलें

दूनु जाना पनरे दिन बाद जीवन का बाबू से भेंट करे जाए ला राय कइल। इ सब बात जीवन ढुका लाग के सुनत रहस। सांझ खां मइया का देवल का पिछुती जीवन आ सुनीता मिलल लो। अइसे तऽ मिले के तऽ कहीं ना कहीं रोजे मिले लो। ओह दिन तनी बेसी उत्साह से मिलल लो। जीवन सब बात बतइलें। आ कहलें 

"अब हमनी के मिलन होइबे करी, आवऽ कसम खाइल जाव जे हमनी के गार्जियन अगर बिआह नाहियों करी तबो हमनी बिआह करबे करेम, सांथे जिएम साथे मरेम। आ सुनऽ सुनीता काल्ह हम सबेरहीं चल जाएम लेकिन वादा करऽतानी जे जल्दीए तोहरा के दुल्हनिया बना के ले जाएम"एतना कह जीवन सुनीता के हाथ धऽ लेलें आ सुनीता आपन माथा उनका छाती से सटा सुसके लगली। 

दूनु आदमी कवनो दोसरे दुनिया मे खो गइल। बिहान भइला जीवन भारी मन से अपना गांव का ओर डेग बढवलें। सुनीता दूरे से आपन हांथ हिलवली, जीवनो कनखी से देख मुस्कुरात, चिन्हासी में मिलल रूमाल हाथ में लेले चल देलें। सुनीता के बाबू ललन आ जलेसर जीवन का दुआर पर पहुँचल लोग, दुआ सलाम भइला का बाद जलेसर बात आगा बढवले "धरमू काका इ हवें ललन आ अपना लइकी के बिआह जीवन से कइल चाहऽतारें ,का कहऽतानी रउआ ?"

"अच्छा पहिले जर-जलपान होखे, रह गइल बात लडिका सेयान हो गइल बा तऽ बिआह कइले जाइ, लोग के तऽ तांता लागल बा हमरा किंहा करीं तऽ हमरा किंहा करीं, देंखी कहां होता", जीवन के बाबू कहलें।

"उ तऽ ठीक बा काका लेकिन जीवन का इनकर लडकी पसन्द बा"जलेसर कहलें।

"देखऽ जीवन त अबहीं बारें ना! उ आगा का पढाई ला चंडीगढ़ गइलें, दू बरिस के आउर पढ़ाई बा। हमहू चाहऽतानी जे उनकर बिआह जल्दीए क दीहीं।"

"इंहा के लइकी कहां ले पढल बिया?" जीवन के बाबू पूछलें? 

"काका उ मैट्रिक पास हिय" जलेसर कहलें।

"ठीक बा हम एह पर सोचेम" जीवन के बाबू कहलें। 

जलेसर आ ललन अपना गांवे आ गइल लो। एने सुनीता का शरीर में बदलाव हेखे लागल, एक दिन कय गो ले उल्टी भइल। सुनीता के हालत देख परेमा काकी सुनीता का माई से कहली ए बछिया तहार बेटी त पेट से बिया। इ सुन उनकर हालत खराब,आंख का आगा अन्हरिया छा गइल। ललनो का जब इ बात पता चलल त उ ठाढ़े गिर गइलें। धीरे-धीरे सारा गांव इ बात जान गइल। 

जलेसर ललन के बहुत समझइलें, हम बानी तहरा बेटी का संगे अन्याय ना होखे देम। एक दिन जलेसर जीवन का बाबू से सारा बात बतइलें। जीवन के बाबू कहलें "उ हमार पतोह हो चुकल बिया, अब उ हमरा घर के इज्जत बिया। चल हम ओहके हम अपना घरे लेआवतानी।"

सुनिता जीवन का घरे आ गइली। जीवन का लगे चिट्ठी गइल लेकिन उ कवनो जबाब ना देलें। हार पाछ के जीवन का लगे उनकर बाबू गइलें। जीवन के बहुत समझइले "बबुआ कवनो बात ना खाता-नागा हो गइल तऽ चलऽ समाजिक रीति-रिवाज का अनुसार बिआह कर दिआव।"

जीवन सुनीता से संबंध के नकारते रह गइलें। आ अंत में कह देलें "बेसी दबाव देहेम तऽ गांव आ रउआ के छोड़ देवे पर मजबूर हो जाएम।"
"तऽ ठीक बा आज से तूं हमरा खातिर मर गइला समान बारऽ! ओह लइकि के परवस्ती हम करेम", अतना कह जीवन के बाबू चल देहलें। 

कुछ दिन बाद सुनीता एगो लडिका के जनम देहली। ओह लडिका के नाम रखाइल संघर्ष। उ लडिको रहे एकदम चंपियन। 

देखते-देखते डाक्टरी के पढाई पुरा कइके संघर्ष दौलतपुर सरकारी अस्पताल में नौकरी करें लगलें। एकदिन संघर्ष अपना गांवे करहीं जात रहस। एक जगे आदमी के भिड देख गाडी रोक पूछलें "का भइल बा जी, काहेला अतना भिड लगइले बानी लोगन?" 

"ए डाक साहेब! हइ एक जाना बूढ़ पैदले रउआ गांवे चलल जात रहलें हं गरमी का मारे बेहोश हो के गिर गइलें हं, तनी लिअवले जाईं, कवनो दवाई होखे तऽ दे दीं, बहुत मजबूर बुझातारें।" भिड में से एक आदमी कहलस।

संघर्ष उनका के गाडी में बइठा ग्लुकोज घोर के पिअइलें आ पूछलें "करहीं केकरा लगे जाए के बा ?" 

उ बोले के चहलें ताले खोंखी उठलआ कुछ ना बोल सकलें। खोंखत लह तांगर हो गइलें। संघर्ष अपना दुआर पर पहुंच गइल रहस। जीवन के हालत बिगड़े लागल रहे, उनका के उतार कुर्सी पर बइठा प्रेसर देखे लगलें। आ माई के गद्दे कइ चाह बनावे ला कहलें। जीवन आंख मुलकावे लागल रहस।

सुनीता चाह के ट्रे हाथ में लेले कुरसी पर बइठल जीवन के एके-टके निहारते रह गइली। 
"माई ए माई का भईल" संघर्ष कहलें
"इ बयमान तहरा कहां मिलल हऽ" सुनीता कहली? 

अतने में सुनीता का ओर देख जीवन कर जोडले आ उनकर गरदन एक ओर झुक गइल। ई देख सुनीता का हाथ से ट्रे गिर गइल आ फफक-फफक के रोए लगली। "जा बयमान सब करम के पहुँचा मिलबो कइलऽ त एको टुम बातो ना कइलऽ" कह आंख से लोर के धार बहे लागल। बाद में संघर्ष के सब बात बतवली। जीवन के अंतिम संस्कार संघर्ष का हाथे भइल। सुनीता बीन बिआहल बिधवा हो गइली।
------------------------

सेवान ला मार

अदरा का चढ़ला पांच दिन भइलो का बाद आकाश में बादल के कवनो नामो निशान ना रहे। खेतिहर लोग आसमान का ओरी टकटकी लगा देखत रहे। "लागऽता इनर भगवान एहू साल बरखा रूपी किरपा से हमनी के बंचित रखिहें कहत आ घटा का ओरी निरेखत चुन्नीलाल गाय के हाँकत चंवर का ओरी चल देलें।

पाँच बरिस से बरखा ना भइला का कारण चेंवर छोड़ आउर कहीं चरी बांचल ना रहे। एह से तीन गांव के लोग ओही चेंवर में बेरा गिरते आपन आपन माल-जाल ले चरावे चल देवे। कुछ नवछेटिया भईंस का पीठ पर बइठ गरदन में लटकत झोरी के चबेना चबावत गीत गावत चरवाही करस त कुछ लोग रामसकल के कउंचा-कंउचा सांझ क देवे में लाग जाव।

अउसे सिसिरो पांरे पिनिके में रामसकल से कम ना रहस। ओह दिन गुमशुम रहेवाला चुन्नीलाल का मन में नाजाने का भाव आइल जे उ सिसिर पांरे के अर-छोहो, अर-छोहो कह देलें। हरदम खरहा जस कान कइके रहेवाला सिसिर पांरे ई सुनते मरखाह भईंसा जस चुन्नी के चहेटे लगलें। चारो ओर लेलकारी पडे लागल। केहू कहे धरऽ-धरऽ केहू त केहू कहे भाग चुन्निया भाग। मिसिर पांरे के भईं आ चुन्नी के गाय चेंवरे में रह गइल ।एक जाना भागे में दूसर जाना खेदे में बाझ गइलें।

खेदा खेदी करत अपना गांव के सेवान टप सहवाँ में पहुँच गइल लो। राड़ी के जड़ गोर में गड़ला का बावजूदो खेदनीहार आ भगनीहार का गति में कवनो कमी ना आवत रहे। चेंवर टप खाड़ी पकवला का कारण बनल डीह पर जामल खजुरबानी का लगे पहुँच चुन्नी एगो झुरमुट का अलोता बइठ गइलें।"केने गइले रे निकल जंहरल के नाती" चिल्लात सिसिर खोजे लगलें। चुन्नी उनके लगलें छकावे। ताले आकाश के नजऽरो बदल गइल करिया करिया बादल छूटी भइला का बाद कक्षा से जइसे लइका निकलेलेंसऽ ठीक अउसहीं चारो ओर दउरे लागल।चुन्नी के गाय भुअर त सिसिर पांरे के फुलेर पहुंचा दीहल लो।

देखते देखते बुंदा बुंदी सुरू हो गइल। चुन्नी कगरियात अपना घरे पहुंच गइलें। अन्हार हो चलल रहे। उ बाबू से लूकाके खाना खइलें आ घरहीं सुत गइलें। माई से कहलें जे अगर बाबू पूछिहें त कह दीहे हमार मिजाज ठीक नइखे। ओने सिसिर पांरे बुनी बरखा के परवाह कइले बिना चुन्नी का दुआर पर पहुँच गइलें।

"काहो बिसेसर अपना लइका के ईहे सीखइले बारऽ", सिसिर पांरे कहले?

"का भइल काका के का कह दीहल"?

"पूछ अपना बेटा से हमरा के छोहो छोहो काहे कहलसऽ"?

आरे काका तूहुं गजब बारऽ, लइका ह कह देले होई, आ तूं कवनो भईंसा त हवऽ ना।

"माने तूं लइका के डंटबऽ ना, ठीक बा तब हमहीं कुछ करेम" कह अपना घरे चल देलें।

बरखा जोर से बरसे लागल रहे। रह रह के बिजुरी चमकत रहे। ओकरा अंजोर में खेतन में भरल पानी देख खेतिहर लोगन के मन हरषित होखे लागल। ओह लोग का भरोसा हो गइल रहे जे ढ़ेर दिन से खाली परल कोठी डेहरी अब जरूर भरी। रात भर छप्पर आ ओरियानी चुअला का संगीतमय आवाज में चुन्नी चैन से सुतलें।अगिला दिन तनी संकेराहे उठलें।उनका मन में एह बात के डर रहे जे अगर सिसिर पांरे बाबू से ओरहन दीहें त कुहाई निश्चित बा। ईहे सोचत जब उ बथानी पहुँचलें त चारो ओर के दृश्य देख अचरज में पड़ गइलें।

चेंवरा चउरी गोंयरा जेने देखीं ओनहीं पानी। दिशा मैदान जाएला कहीं कवनो जगह ना बांच गइल रहे। सुखल जमीन अगर कहीं रहे त उ बस उ घरारिए रहे। कुछ लोग के बथानो डुबे डुबे हो गइल रहे। तनिका देर बाद जब सब लोग जागल त एके बात कहे चलऽ लोगिन सेवान काटल जाव ना त हमनी के खेत पधार त डुबबे कइल घरो डुबी। ईहे हाल बहेरा गांवों के रहे ओह लोग का रेलवे लाईन का अलावे दोसर दवरो ना रहे। लेकिन चुन्नी का सेवान पर जमा पानी से बगल का गांव में पानी तीन चार फूट नीचा रहे। लेकिन बहेरा गांवों के लोग मुश्तैद रहे सेवान पर पहरा देवे लागल लो। चुन्नी का गांव के लोग सेवान काटे के जोजना बनावे में व्यस्त रहे त बहेरा गांव के लोग बचावे के जोजना बनावे में व्यस्त। दूनो ओरी लोग मुश्तैद कब का हो जाई कवनो भरोसा ना।

बरखा रहे कि रोके के नावे ना लेत रहे। दुपहरिया का बेरा में बुनी छेवक होखते चुन्नी का गांव के लोग अग्या पांरे का अगुआई में सैकड़ो आदमी लाठी भाला फेरसा कुदारी ले बजरंग बली की जय सुखारी ब्रह्म की जय नारा लगावत चलल सेवान काटे। आ ओनहु के लोग तइयारिए में रहे। ओही सेवान पर हो गइल जोर अजमाइस। बान्ह का दूनु अलंग पानी भरल रहे ओजवे मार शुरू हो गइल। बहेरा का जमदार पहलवान के लाठी जब खेंखर पहलवान का मुरी पर लागल त रकत के धार बह चलल। उ नाचके गिर गइलें। अतने में दाहारू पहलवान जमदार पहलवान के मुरी फोड़ दीहलें। खुन के नदी बह चलल। एने का दसन लोग के मुरी फूटल त ओने का दर्जनो लोगन के। पानीपत का जुद्धो से भयंकर जुद्ध होखे लागल। लठीधर लोग अपना कला का बले दुश्मन के चित करे लागल। बहेरा गांव कमजोर पड़े लागल। अतने में बहेरा के दुलार मनोहर पांरे का छाती में बर्छी घोंप दीहलें। बर्छी उनका छाती में फंस गइल आ गिर पड़ले दरद से चिल्लाए लगलें। पानी का निकासी ला भइल मार में रकत के निकसत देख बहुत लोग पछतावा भइल। तबले देर हो चुकल रहे। मनोहर पांरे का छाती से बर्छी निकाले में बहुत लोग करेजा काँप गइल। जब उ निकलाइल त उनका मुंह से अरे बाप के जवन शब्द निकलल बहेरा का लोगो के करेजा छेद गइल। सेवान काटे आ रोके में दूनु गांव से चार गो रंथी निकलल। एह घटना मर्माहत हो बहेरा के बिनेसर आंख से लोर चुआवत सेवान काट देलें।

चुन्नी जब ओने जालें त उनका उ घटना मन पड़ जाला आ आंख से चुअत लोर चेहरा पर पड़ल झुरियन का बीच अझुरा के कहेला "हई सेवनवा आज जेगं खुलल बा अउसहीं ओहू दिन खुलल रहित त चार गो प्राण अखड़ेड़े ना गइल रहित। 
------------------------
लेखक परिचय:-
बेवसाय: विज्ञान शिक्षक
पता: सैखोवाघाट, तिनसुकिया, असम
मूल निवासी -अगौथर, मढौडा ,सारण।
मो नं: 9707096238





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

मैना: भोजपुरी साहित्य क उड़ान (Maina Bhojpuri Magazine) Designed by Templateism.com Copyright © 2014

मैना: भोजपुरी लोकसाहित्य Copyright © 2014. Bim के थीम चित्र. Blogger द्वारा संचालित.