डॉ अशोक द्विवेदी जी के चार गो चइता

रस ना बुझाइल

गते-गते दिनवाँ ओराइल हो रामा

रस ना बुझाइल।


अँतरा क कोइलर कुहुँकि न पावे
महुवा न आपन नेहिया लुटावे
अमवो टिकोरवा न आइल हो रामा
रस ना बुझाइल।

चिउँ -चिऊँ चिकरेले, गुदिया चिरइया
हाँफे बछरुआ त हँकरेले गइया
पनिया पताले लुकाइल हो रामा
रस ना बुझाइल।

रूसल मनवाँ के,झुठिया मनावन
सीतल रतियो में दहके बिछावन
सपना, शहर उधियाइल हो रामा
रस ना बुझाइल।

तनी अउरी पवला के,हिरिस न छूटल
भितरा से कवनो किरिनियो न फूटल
सँइचल थतियो लुटाइल हो रामा
रस ना बुझाइल।

चइतवा बड़ निक लागे

अँतरा लुकाइल अन्हरिया
चइतवा बड़ निक लागे।
टह टह , टहके अँजोरिया
चइतवा बड़ निक लागे।

झपसल डाढ़ि, हँसल अमरइया
झाँवर मुख पर चढ़ल गोरइया
झूमल घन बँसवरिया
चइतवा बड़ निक लागे।

धइले मोजरिया के,नन्हका टिकोरवा
जस, दुधकटुवा छोड़े न कोर वा
कतनो चढ़े दुपहरिया
चइतवा बड़ निक लागे।

मन मधुवाइल, तन अलसाइल
नव सिरजन के, रंग रँगाइल
नीक ना लागे कोठरिया 
चइतवा बड़ निक लागे।

टह टह टहके अँजोरिया
चइतवा बड़ निक लागे॥

उनुका से कहि दऽ

रसे-रसे महुवा फुलाइल हो रामा
उनुका से कहि दऽ।
रस देखि भँवरा लोभाइल हो रामा
उनुका से कहि दऽ।

पुलुई चढ़ल फिरु
उतरल फगुनवा
कुहुँकि-कुहुँकि रे
बेकल मनवाँ
सपनो में चएन न आइल हो रामा।
उनुका से कहि दऽ।

टहटह खिलल आ
झरल अँजोरिया
झुरुकलि कइ राति
पुरुबी बयरिया
अँखिया अउर सपनाइल हो रामा
उनुका से कहि दऽ।

चइते लेसाइल
बिरह अगिनिया
सेजिया पऽ लोटेले
सुधि के नगिनिया
रतिया लगेले बिखियाइल हो रामा
उनुका से कहि दऽ।

चइत उसुकावे

मन परे पाछिल बतिया
ए बेरी चइत उसकावे!
निनिया उड़ावे अधरतिया


 बेरी चइत उसकावे!

कुरुई भरल रस महुवा कऽ पियले
पुरुवा बखोरे मधुवाइ अनचितले
देहियाँ कऽ सइ गो सँसतिया
इ 

बेरी चइत उसकावे!

मुसवा-बिलइया चुहनिया अँगनवाँ
खरकेला कुठु गिरे कहीं बरतनवाँ
धड़केले काहे दूनी छतिया

 बेरी चइत उसकावे!

उनुका नोकरिया कऽ बाटे एतना
सँग कहाँ रहिहें देखलको कऽ सपना
फुटही मिलल किसमतिया

 बेरी चइत उसकावे! 

निनिया उड़ावे अधरतिया 

 बेरी चइत उसकावे!
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लेखक परिचय:-



नाम: डॉ अशोक द्विवेदी
संपादक: पाती
रचना: बनचरी, फुटल किरिन हजार, गाँव के भीतर गाँव आदि
 सम्मान: राहुल सांस्कृत्यान पुरस्कार, भोजपुरी शिरोमणि आदि
बलिया, उत्तर प्रदेश



अंक - 76 (19 अप्रैल 2016)

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