गीत जिनिगी के गावल ह आपन धरम
गीत जिनिगी के गावल ह आपन धरम
चोट खा-खा हँसावल ह आपन धरम
साध जिनिगी के सध ना सकल साँच बा
आस अनकर पुरावल ह आपन धरम
हँ जी, भटकीले दुनिया ई भटकावेले
राह जग के देखावल ह आपन धरम
मीत जेही मिल मतलबे के मिल
पर मिताई निभावल ह आपन धरम
देखीं जेकरा के फँसल बा मद मोह में
ओह से खुद के बँचावल ह आपन धरम
आसरा आज फेर बात से फिर गइल
बात कह के पुरावल ह आपन धरम
आँख के पानी सब गिर गइल गाँव के
पानी गँवईं जोगावल ह आपन धरम
रात-दिन उठ-बइठ बीचे बेईमान के
सत्व से मान पावल ह आपन धरम
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हम त शहर में गाँव के जिनिगी बिताइले
हम त शहर में गाँव के जिनिगी बिताइले
मनमीत जहँवाँ पाइले हहुआ के जाइले
भाई भरत के भाव मन में राम रूप ला
सत्ता के लात मार के नाता निभाइले
रीढ़गर कहीं झुकेला त सीमा साध के
सुसभ्य जन के बीच हम बुरबक गिनाइले
धवल लिवास देह पर, बानी बा संत के
करतूत उनकर जान के हम गुम हा जाइले
कामे केहू का आईं त होला बहुत सबूर
भलहीं भरोस आन पर कर के ठगाइले
जेकर ईमान ताक पर बा ओकरे घर खुशी
तंगी हम ईमान के अपना बँचाइले
लिहले लुकाठी हाथ में लउकित कहीं कबीर
जेकरा तलाश में हम पल-पल ठगाइले
‘जयकान्त’ जय विजय के भरोसा का हम कहीं
अपजस में जस के दीप हम हर दिन जराइले
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लेखक परिचय:-
नाम: डॅा० जयकान्त सिंह 'जय'
जनम: 1 नवम्बर 1969, मशरक बिहार
बेवसाय: भोजपुरी विभागाध्यक्ष
एल एस कॉलेज, मुजफ्फरपुर, बिहार
अंक - 45 (15 सितम्बर 2015)
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