गलती केकर - प्रशान्त पाण्डेय

"रामबेलसा?.... कहाँ बाड़े रे?"
"आवत हई चाचा, बस हथवा धो लीं तनीं"
"भाक ससुरा, दिन में कई हाली झाड़ा फिरे ले रे?"
"अरे, काल राती के दाल पूरी आ सेवई बनल रहे…ढेर हो गईल"
"हाँ तS ससुर लोग डालडा आ तेल पी के बड़ भईल बाड़S लोग, ना पची………इहे ता हम हूँ खईले रहुईं, तबो टंच बानी"
"जाए द चाचा। जौन दिन तैरत तेल वाला राजमा आ सरल चावल महीना दिन खा के भी फैक्ट्री में टाइट रह बा, तौन दिन हमरा से बोली ह” 
"त हमरा के का सुनाव तरे? तोरे सौख रहे पंजाब जा के कमाए के,"
"त का करतीं? कम से कम खाना दाना त चल ता," 

राम बिलास जीवन के सच से कब्बे समझौता कहिए क ले ले रहे. ओकरा उमिर के कई गो लइका पंजाब, गुजरात, बॉम्बे जा के काम करसs. एक तरह से ई रिवाज रहे. लइका कमाय लायक भईल, तs बाहर जइबे करी. राम बिलास के नांव से डेढ़ बिस्वा जमीन रहुए, लेकिन ओकर रहल ना रहल बरबारे रहे. ओकरा मन में ई कब्बो ना आईल की जीवन जिए के कौनो अऊरू तरीका हो सकेला.

चाचा बोली बोलल चालू रखलन. कहे लगलन: "जाए दे! अतने मन रहे घरे रह के काम करे के, तो कौनो सरकारी में काहे न ट्राई कइले?"
"अच्छा?! पसेरी के भाव से नौकरी मिलते बा,"
"तोरा के त मिलिए जाइत, तोर बाबूजी के मतलबे न रहे,"
"कइसे?"
"अरे, एसडीएम के अर्दली से रिटायर होखलन, चहतन त अपरासी-चपरासी में न लगवा देतन?"
"बाबूजी के जानत न हउवS?"
"उहे त! ईमानदारी के फल का मिलल? साला, उनकरा जगह पर हम रहतीं, त रजुआ, आ तें, दुनो मजे में सरकारी माल बनइतS स.…आ तहसील में कमाई के कौनो कमी कबो न रहे,"
"अब ई बतियवला के कौनो फायदा नइखे,"
"ठीके कहतरे, लेकिन तबो..........."

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"हम सुननी हं तहार बात. तू हूँ इहे सोचे ल नू कि बाबूजी कौनो सरकारी नौकरी में लगा दे ले रहतन तs...."
"ना बाबूजी। लेकिन लोग बा त कुछ बोलबे नू करी"
"हम तहरा के कोसत नइखीं। लेकिन जान तSरS. जौन फैक्ट्री में तू काम करे जा ल लुधिआना, ओइसने फैक्ट्री इहवों लाग सकत रहुए"
"त काहे न लागल?"
"हम नया, नया अभी अर्दली भईल रहुईं, ओ घरी एगो एसडीएम साहब के पोस्टिंग भईल रहुए। ऊ रहलन आईएएस, लेकिन ट्रेनिंग में एसडीएम में पोस्टिंग भईल रहुए। ओही घरी, हमनीं के गाँव से एक कोस पर बंजर ज़मीन रहे. ओही पर एगो कागज़ बनावे वाला फैक्ट्री बैठावे के बात चलल. बंसवार के कमी हमनीं किहाँ कबो न रहे, जानते बाड़S,"
"फेर,"
"ऊ एसडीएम साहब बहुत मेहनत कइलन। रोज़ साइट पर जास. लेखपाल, कानूनगो सबके तड़ियवलन। मय सेट हो गईल रहुए। तलहीं उनकर ट्रांसफर हो गईल. बाद में पता चलल की हमनीं के गाँव क ठाकुर साहब, प्रधान जी और एगो लेखपाल मिल के उनका खिलाफ गलत सलत शिकायत कई दिहलन आ ओही पर उनकर ट्रांसफर हो गईल. तौन दिन रहुए, कि आज के दिन बा.… फैक्ट्री त छोड़S, आज ले एगो ईंटा न गिरल"
"आ का भईल ऊ ज़मीन के? हम त ना जननी कि कौनो बंजर जमीन बा!"
"जनबs कैसे, ठाकुर साहब कहिये ओ जमीन पर स्कूल बना के नोट पीट रहल बाड़न"
"चलs, फैक्ट्री ना त कम से कम स्कूल त बा. आखिर ओकरो जरूरत त बटले बा"
"अइसन स्कूल में बेटा खाली पैसा के खेल होला… कतना लइका आज ले इहवाँ से निकललन, तनी बता द त?"
"खैर बाबूजी! अब जौन बा तौन बा.…परसों के टिकट मिलल बा। रोजी-रोटी त देखहीं के पड़ी.…आज दाल पूरी से बात निकल के कहाँ ले पहुँच गईल,"
"ऊ त बटले बा.…बाकी ई जौन तहार चाचा बाड़न नू, ई ठाकुर साहब के साथ लाठी ले के चलत रहुवन। ऊ बेचारा एसडीएम साहब त मरा गईल रहतन। हमरा पता चल गईल, त बांच गउवन। तबे से हमरा से खार खईले रहेलन। ठाकुर साहब के सामने इनकर इज्जत जौन ख़राब हो गईल"
"बाबूजी, लेकिन आज ले कबो न बतइयला ई कुल चीज,"
"बेटा एसे बताव तनी की जिंदगी भर खाली हम सुनले ही बानी। हमार भाई, हमार बाबूजी, तहार माई, तहार मामा -- केहू हमरा से कबो खुस न रहल. सबके इहे सिकाइत रहे की हम आज ले केहू के भला ना कइनी। हमरा के हमेसा लोग ई जतावे के कोशिश कइलस कि गलती हमार बा. गाँव के लइकन-बच्चन खातिर हमरा जोर लगावे के चाहत रहे. हमहुँ चुपचाप सुन ले लीं. केकरा-केकरा के समझइतीं…अभी तs सामने पड़ जाला पर कहे ला लोग की बहुत सीधा आदमी हउवन। लेकिन हमरा पता बा की मुंह पीछे लोग गरियावे ला. ऊ का कहाला? गट्सलेस्स! डरपोक!"
“….”
“अब तू सोचs, 30 साल पहिले फैक्ट्रिया लाग गईल रहीत, त रजुवो आज कमाइत खाइत। आज पुलिस से भागल फिर ता. अब तू बताव कि हम गलत रहुईं, की ऊ एसडीएम साहब गलत रहुवन, कि गाँव के स्वार्थी लोग?"

आज पहिला बार राम बिलास के भी मन में आईल की ऊ फैक्टरिया लाग गईल रहित, तs जिंदगी के अऊरे रंग रहित।
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लेखक परिचय:-

नाम - प्रशान्त पाण्डेय 

पता: ४, गुलटेरिया अपार्टमेंट,
७ क्लाइव रोड,

सिविल लाइन्स,

इलाहाबाद (उ. प्र.)-211001 
संपर्क सूत्र: 84000-33003
अंक - 42 (25 अगस्त 2015)

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