मन चिहुँकेला, सोचे बेबाती
जे लोग राग कइसे लगइहें..
मन खउँझेला अन्हरे-पराती
जे जोग भाग कइसे जगइहें..
देस के आने प जिनगी चलौनीं
सीमा प पवनी, उ गाँवें गँवौनी
हठ पारेला भुइँयाँ रेघारी
तिरंग सान कइसे बढ़इहें..
पेरत दासा देखावे तमासा
छनहिं में तोला, त छनहिं में माशा
मन भटकेला बउड़म-देहाती
उतान नाँव कइसे करइहें.. .
चाह-उमीद घोंसारी लगावे
हाल बेहाल बवाल मचावे
सुख लउकेला सहिजन-डाढ़ी
खयाल बाग कइसे सजइहें.. .
आँखे तरेगन जोन्हीं जियाईं
सपना सजाईं त काया गँवाई
बड़ कचकेला कहँरत काठी
कि आहि लाग कइसे लगइहें.. .
जीयऽत सूगा उँघाइल कँछारी
सिरदल मनवाँ सँजोए बेमारी
जब दँवकेला साढ़हिं-साती
उपाइ लोग कइसे सुझइहें..
----------------------------------
अंक - 80 (17 मई 2016)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें