हमरा टोला के बँसवार - केशव मोहन पाण्डेय

हमार टोला तऽ रहे नन्हींचुक बाकीर संपन्न्ता से परिपूर्ण। पक्का मकान के नाम पर राजकीय प्राथमिक विद्यालय के दूगो कमरा बाद में बनल। ओकरा बाद सबके घर बाँस, खर, कोईन, बाती के। माने सगरो गाँव फूस के। तऽ सबके घर खातीर सबसे बड़का धन बाँस आ खर रहे। टोला में घरन के ईऽ दशा अभाव के कारण कम, बाढ़ आ व्यवस्था के कारण अधिक रहे। माने हमरा आजुओ लागेला कि सबके मन के कवनो कोना में ईऽ भय जरूर पइसल रहे कि कबो-ना-कबो गंडक के प्रकोप बढ़ सकेला आ घर, टोला, संपत्ति उनका पेट में समाऽ सकेला।
टोला में अभाव आ कमी के कारण ईहो रहे कि भले हमरा होश संभलला ले सभे भाई लोग आपस में पट्टीदार होे गइल रहे लोग, सगरो रिश्ता-नाता के बँटवारा हो गइल रहे, बाकीर सबके घर में केहू-ना-केहू सरकारी नौकरी में जरूर रहे। भले ओह बेरा वेतन कौड़ी के तीन आना मिलत रहे बाकीर नौकरी से संपन्नता रहे। तबो सभे ईटा जोड़ला से अच्छा खंभा-थुन्हीं सीधा करवावल बुझे। ओह खातिर सबसे पहिलका आवश्यक चीज बाँस रहे।
हमरा टोला के पुरूब से भंडार कोना ले तीन-चार गो बड़का-बड़का बँसवार रहे। ओहमे सबसे बड़का हमनी के बँसवार। करीब अढ़ाई-तीन सौ कोठ रहे। हिस्सेदार पाँच जने। बड़ा घन-घन कोठ। मजबूत बाँसन के कोठ। ओकरा पुरूबो, बहेलिया डोभ के लगहूँ बँसवार रहे। ओह बँसवार में से घर छावे खातीर डाभियो (पातर बारीक खर) कटाऽ जाव। भंडार कोना के बाँसन के शुरूआत करइन के पेड़ के लग्गे से होखे। फेर चमटोली के बँसवार। अहीरटोली तऽ पूरा बँसवारे में बसल रहे। सबके घर के इगुवारे-पिछुवारे एकाध गो कोठ मिलिए जाव। बीरबल भाई के दुआर के बँसवार से ले के अली टोला ले, बंधा के लग्गे ले, खाली बाँसे-बाँस।
भुग्तभोगी आदमी अपने चादर से पैर तोपे के कला में माहीर होले। जवन व्यवस्था रहे, टोला भर के लोग ओही में गुजारा करे के अभ्यस्त रहे। आगे बढ़े खातिर प्रयासरतो रहे। घर छवावे खातीर सहजता से सबके बाँस मिलिए जाव। पइसा ना रहला पर बँसवे देऽ के खरो खरीदा जाव।
समय के फेरा के कारण अगर कबो डेहरी के अनाज खतम हो जाव आ हाँड़ी पर परई चढ़ावे खातिर दोसर कवनो बहाना ना मिले तऽ दू-चार गो बँसवे बेंच के मोहन तिवारी चाहे गिरधारी के दोकान में पहुँचल जाव। हमरा ईहो ईयाद बाऽ कि जब इंटर में हमके दस किलो-मीटर पढ़े जाए के पड़ल तऽ साइकिल के जरूरत पड़ल। तीन-चार महिना तऽ पैदले धांग देहले रहनी, बाकीर लइका के जीव, हार जाईं। बाबुजी अनुभवो कइले, हम कहबो कइनी। अपना बेंवत भर बाबुजी के कवनो सेकेंड हेंड साइकिल ना मिले। मिलल तऽ पूरा पइसा नाऽ। . . . खैर, सुतार ई बइठल कि साइकिल वाला के बाँस के जरूरत रहे। पटरी बइठ गइल। बात बन गइल। ओही बाँस के कारण हमरा बासे पहिलकी साइकिल चढ़ल।
हमरा टोला में लगभग सबके घरे बँसवारे के कारण घर छवा जाव। थून्हीं सोंझ हो जाव। टाट-बेड़ सुधर जाव। गरज पड़ला पर बँसवे के पाटी वाला खटीयो तैयार हो जाव। सूखला पर कोईन लवना के कामे आ जाव। झमड़ा बन जाव। बँसवे कबो-कबो रोटीओ के व्यवस्था कऽ दे। जाड़ा में ओही बाँस के पतई आ कोंपड़ बिन के घूरा के टीला तैयार होखे। टाँगी के चोट से बाँस के खुत्था निकाल के बाबूजी के निरंतर जरे वाला धुईं तैयार होखे। ओह धुईं के कारन दालान में चहलकदमी बनल रहे। 
एतने ना, हमरा बँसवार में चाभ वाला बाँस के एगो कोठ रहे। ओह बाँस के उपयोग खाली धरम-करम में होखे। केहू के अपना अंगना में ध्वजा फेरे के होखे तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। केहू के घरे माड़ो छावे के बा तऽ चाभ के बाँस कटा जाव। कई लोग ओकरा खातिर पइसो दे। बाबूजी दसोनोह जोड़ लें। पइसा पर तऽ ढेर बँसवार बाऽ। चाभ के बाँस खतीर पइसा ना। पूजा के बात बा तऽ कबो हमरो गरज पड़ला पर चूका दिहऽ। ई सुन के लोग के हृदय हुलास से भर जाव। रोंआ आशीष बरसावे।
अब बड़ भइला पर जाति-धरम, छोट-बड़ के ढेर भेद बुझााताऽ। हमरा टोला में बाभन लेग के अधिकता रहे बाकिर ई अछोप कम घेरले रहे। हमरा टोला में मुसलमान के नाम पर खाली बलिस्टर भाई के परिवार रहे जे खाली अंसारी उपनाम से बुझासऽ। अउरी उठल-बदठल, पनिल-ओढल कहीं कुछ विशेष ना लागे। हँऽ तऽ जब तजिया बनावे के बात होखे तऽ सबसे ढेर हमरे टोला से बाँस दिहल जाव। पूरा श्रद्धा भाव से। एकदम बिना पइसा के। धरम-नेम खातिर पइसा लिहल पाप मानल जाव। ओह बेरा हमरा टोला के समरसता बढ़ावे में बँसवार के अहम भूमिका रहे।
बरसात के मौसम में जब कबो झपसा के लड़ी लाग जाव तऽ दिक्कत तऽ सबके होखे, बाकीर सबसे अधिका दिक्कत माल-गोरुन के होखे। गेहूँ के भूसा कबले रूची? हर जीव जीभ के स्वाद बदलत रहे के चाहेला। खेतन में किनारे-किनारे धरीआवल साहेबनवा बाजरा अभीन धरती छोड़लहीं रहेला कि बरसात मुड़ी पर आ चढ़ेला। अभीन धरती छोड़त बाजरा पर हँसुआ चलावला से का फायदा। एह विचार से हरिहरी के ओह अकाल में हम हजार बेर देखले बानी कि बाँस के पुँलगी नीचे कऽ के चाहे ओही पर चढ़ के लोग ओकर पतई तुरे। पतई के लुँड़ी बना-बना के जमा कऽ लिहल जाव। ओकर छाँटी काट के नाद बोझााव तऽ गोरूअन के नाद से मुँहे ना उठे।
केहू के कोठ में अगर कवनो पातर, छरहर, गँठल बाँस निकलल तऽ ओहपर सबके आँख गड़ल रहेला। कोंपड़ तऽ कवनो काम के ना होला, बाकीर कम-से-कम एक-डेढ़ साल के हो गइला पर ओकर बड़ा गंभीर लाठी बनेला। अइसन बाँस खातीर चोरीओ-चमारी मान्य रहेला। नागू आ महावीर काका घरे हम कई बेर बाँस में लाठी के संस्कार देत देखलहूँ बानी। बड़ा पसंद से, बड़ा मेहनत सेऽ लाठी बनावल जाला। लागेला कि ओह बाँस के नवका अवतार में धीरे-धीरे ताकत के संस्कार दिहल जात होखे। एक-एक गिरह के चाकू से चिकन कइल जाला। कड़ू के तेल लगा-लगा के कई दिन ले ओहके गोईंठा के मद्धिम आँच पर पकावल जाला। दूध दूहला के बाद जवन काँच माखन निकलेला, ओ के निर्माण होत लठिया में लाहे-लाहे पिआवल जाला। अइसने प्रक्रिया बेर-बेर कइल जाला। कई दिन, कई हप्ता, कई महिना ले ई करतब चलेला। लागेला कि मक्खन लगा के खून निकाले के गुन भरल जाला ओहमे।
टोला में बाँस के अधिकता, फूस के घर के अधिकता, खर-खरबाना के अधिकता, बेहाया आ करवन आदि के झाड़-झंखाड़ के अधिकता के कारण कीड़ा-फतिंगा के अधिकता रहेला। ओह कीड़ा-फतिंगन खातिरो सबके घर में लगभग दू-चार गो लाठी-लउर मिलिए जाई।
हमरा टोला में एकाध घर छोड़ के महावीर काका जइसन लाल ठार लाठी तऽ ना मिलेला, बाकीर कवनो रूप में उपस्थित जरूर रहेला। हमरा बाबूजी के सबसे प्रिय लाठी चार साल पहीले ले रहल हऽ। कठबँसिया के लाठी रहे ऊ। दिल्ली में कठबँसिया ढेर लउकेला। लउकेला तऽ बाबूजी के ऊ लाठी ईयाद आ जाला।
टोला के शायदे कवनो घर होई, जेकरा घरे लबदी ना होई। मुँगड़ी ना होई। लाठीए के रूप कहीं या पर्यायवाची, लउर, डंडा, लबदा, झटहा, सटहा, पैना, छिंऊकी, मुँगड़ी आदि हऽ बाकीर सबके गुन आ आकृति अलग-अलग हऽ। हमहूँ कई बेर छतुअनिया तर के बइर तूरे खातीर चाहें करवनवा तर के सेनुरिया आम गिरावे खातीर झटहा के सफल उपयोग के अनुभव रखले बानी। वइसे हमरे कुनबा में लाठीयो के मजगर उपयोग देखे के मिलल बाऽ। 
आज जब अपना टोला के बृहद् बँसवार के ईयाद करेनी तऽ पूरा टोला के ढाँचा साफ हो जाला। तब समझ में आवेला कि हमरा टोला खातिर, ओहके पहरेदारी में, रक्षक जइसन चारू ओर खड़ा बाँस के कोठन के का महत्त्व रहे। सबके आवास के सगरो अस्तित्व बँसवे से रहे। टाट के बाती होखे चाहें चार के रोके वाला थुन्हीं, बाँस अपना जोर से सबकुछ सलामत राखे। बाँसे के थुन्हीं। बाँसे के कोन्चड़। पसलौड़ो सोंझका-छरहर बँसवे के होखे। कई बेर जरूरत पड़ला पर दू गो बराबर आकार आ आकृति के बाँसन के जोड़ के लरहियों के काम निकालल जाव। हमरा टोला में सबके खातिर बाँस रहे तऽ आस रहे। घर के एक-एक चार में बाँस। एक-एक कोरो में बाँस। जब घर छवावे के काम लागे तऽ एक-एक बाँस से बाती बनवला के मिस्त्री लोग के कला देखत बने। दाब के मुठिया बाँस के। सहारा बनल मुँगड़ी बाँस के। दिनभर के काम खतम भइला के बाद खाना बनावे में चूल्ह बारे खातिर हलुका छिलका मजेदार जलावन के काम करे।
हमरा टोला के बँसवार के बाँस चाहे मोट-मजबूत होखे, चाहे फोफड़, सबसे अलग-अलग काम लिहल जाव। गुन आ बनावट के कारने काम के मर्यादा निर्धारित कऽ दिहल जाव। कवनो सात टेढ़े-टेढ़ बाँस मिले तऽ ओहके काट के बड़का कलाकारी से दूऽफारा लगावल जाव। नीचे के ओर तनी नोकदार कऽ के चिकन कऽ दिहल जाव। चिकन करे खातिर दाब आ गड़ासी के सहारा लिहल जाव आ दँउरी आदि में उपयोग करे वाला खरदनी बना दिहल जाव।
हमरा टोला के सभे बाँस के अंग-अंग से काम लेबे में माहिर रहे। ऊँहा बाँस के हर अवतार के उपयोग होखे। जरूरत से समझौता आ उपलब्धता के उपयोग के उदाहरण बँसवार के सथवे हमरा टोला के सहजता में लउके। कोला-बारी के घेरा लगावे के होखे, चाहे इगुआरे-पिछुवारे पसरत फरहरीअन खातिर झमड़ा लगावे के बात, बाँस के कोईन, बाती, थुन्ही के अवतार मिलिए जाव। घोठा पर बँसवे के खूँटा आ बँसवे के बाती से बिनल नाद। लग्गी से लवना ले बाँसे-बाँस। लाठी-लउर से ले के लबदा-पैना ले बाँस। हमरा स्कूलो के निर्माण बँसवे से रहे। मास्टर साहेब के हाथ में बँसवे के छड़ी। हमरा टोला भर के हर पहचान में बाँस के भूमिका आज ईयाद अइला पर सोंचे के मजबूर कऽ देला। बितल बात ईयाद आ के आपन कइगो असर छोड़ जाला। ईयाद हँसी-खेल के। ईयाद अमरख-ईर्ष्या के।
हम कक्षा चौथा चाहें पाँचवा में पढ़त रहनीं। हमनी के चार-पाँच लइकन के झूंड रहे। आपस में खेल-कूद, लड़ाई-झगड़ा, सब होखे। ओहि तरे हमनी के बड़ दीदी लोग रहे। ऊहो लोग चार-पाँच जानी। ओहू लोग के पढ़ाई से सिलाई-कढ़ाई, रार-झगड़ा, सब सथवे होखे। अभाव भरल हमरा टोला के ईऽ सबसे बढ़का गुन रहे कि जँहवा ले विद्यालय के व्यवस्था रहे, लड़की लोग के भी शिक्षा के बराबर के अवसर दिहल जाव। बेहिचक। बेझिझक।
हँऽ तऽ एक बेर कवनो बात पर पार्वती दीदी से अनबन हो गइल रहे। ऊ बात साफ नइखे ईयाद कि अनबन केकरा से भइल रहे। हमरा से कि हमरा दीदी से। आऽ कि बँसवार के धन पर हमार घमंड रहे। भइल ई कि पार्वती दीदी हमरा दखिनही कोठ से हँसुआ से कोईन काटे के जिद्द करे लगली। हमहूँ जिदिआ के मना करे लगनी। ऊ हँसुआ बढ़वली तऽ हम ओकर धरवे पकड़ लेेहनी। उनका लागल कि हम हँसुअवा छिनत बानी। ऊ अपना ओर खिंचली। ओही खींचखाँच में हमरा दहिना हथेली में एगो गहिरा चिरा लाग गइल। खून तऽ बाद में बहल, बाकीर चीराऽ देख के हम बउआ गइनी। भूँइया पटाऽ के चिलाए लगनी। बेचारी ऊहो देखली तऽ उनकर खून सूख गइल। पहिले तऽ लेमचूस के लालच दे केऽ चुप करावे के चहली, बाकीर दाल ना गलल तऽ पराऽ गइली। बाद में हमनी के महतारी लोग में नगदे भइल। एतने नाऽ, ऊ बेचारी बाँस के पोर पर के भूसी निकाल के लेअइली। कटलका पर लगा के कपड़ा से बान्ह दिहल गइल। घाव कुछ दिन ले रहे बाकीर चिन्हा आजुओ बाऽ। अब आज कहीं आपन चिन्ह लिखे के रहेला तऽ हम ऊहे लिखेनी - ‘ए कट मार्क आॅन राइट पाम।’ जब-जब लिखेनी, तब-तब ऊ घटना ईयाद आवेला। पार्वती दीदी ईयाद आवेली। वँसवार ईयाद आवेला। आ ईयाद आवेला ओह बँसवार के भौगोलिक स्थिति। दूनो ओर बेहया भरल गड़हा से घेराइल छवर ईयाद आवेला। ईयाद आवेला पूरा टोला। टोला के स्वरूप। ईष्र्या। द्वेष। समरसता। अपनत्व। आ एह सब के बीच बँसवे के कोरो, थून्हीं, पँसलवड़ पर टँगाइल टोला के घर दुआर। बँसवे के पाटी-पउवा से तैयार खटिया। जीनगी से साथ देत बाँस आ अंतिम विदाई के बेरा वाहन बनत बाँस। ओह बाँस आ बँसवार के सथवे टोला से लोग के पलायन। अगलग्गी। घरन के स्वाहा भइल रूप। आ अंत में नदी के कटान में हमरा टोला के बँसवार के अंतिम समाधि।
आज सेवरही में सीमेंट-बालू-ईंट के घर तैयार था। एल.पी.जी. के कारन माटी के चूल्हा गायब बाऽ। प्रभु के परताप से हर प्रकार के सुख बाऽ। बाकीर सावन चाहें कवनो जग-परोजन में जब कबो घ्वजा फेरे खातिर बाँस के जरूरत पड़ेला, तऽ खरीदे के पड़ेला। तब हमरा टोला के चैकीदारी करत सगरो बँसवार के दृश्य बेर-बेर नजरी के सामने नाचे लागेला आ मन अधीर हो जाला।
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लेखक परिचय:-

2002 से एगो साहित्यिक संस्था ‘संवाद’ के संचालन।
अनेक पत्र-पत्रिकन में तीन सौ से अधिका लेख
दर्जनो कहानी, आ अनेके कविता प्रकाशित।
नाटक लेखन आ प्रस्तुति।
भोजपुरी कहानी-संग्रह 'कठकरेज' प्रकाशित। 
आकाशवाणी गोरखपुर से कईगो कहानियन के प्रसारण
टेली फिल्म औलाद समेत भोजपुरी फिलिम ‘कब आई डोलिया कहार’ के लेखन 
अनेके अलबमन ला हिंदी, भोजपुरी गीत रचना. 
साल 2002 से दिल्ली में शिक्षण आ स्वतंत्र लेखन.
संपर्क –
पता- तमकुही रोड, सेवरही, कुशीनगर, उ. प्र.
kmpandey76@gmail.com
अंक - 60 (29 दिसम्बर 2015)

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