आम के बउर आ गुरचरा नीयन चइत - परिचय दास‏

भारतीय परंपरा में पहिलका मास ह चइत। भारतीय बरिस के अंत बसंत में, आरंभो बसंत में। अंत फागुन में, आरंभ चइत में। प्रकृति में परिवर्तन के देखते-देखत भारतीय वर्ष के अंत आ आरंभ। चइत में दिन आ रात; दूनों सोहावन हो जालें। सरसों में फूल, आम में बउर। अद्भुत राग-रंग। बिरिछ-बिरिछ में नव पल्लव, प्रकृति में हरियरी , पेड़न में नयकी पतई। कोइलि के बांसुरी। चइत यानी चित्रा नछत्तर से निकरल। चित्रमय प्रकृति। चइत सुकुल प्रतिपदा से वर्ष के आरंभ कइला के ईगो वैज्ञानिक आधार हवे। इंगलैंड के ग्रीनविच नाँव के जगह से तिथि बदलला के व्यवस्था 12 बजे रात से हवे, वो समय भारत में सबेरे के 5:30 बज रहल होला। हमनी के भारत में रात के अन्हियार में नववर्ष क स्वागत न होला बलुक भारतीय परंपरा के नववर्ष सूरज के पहिलकी किरिन के स्वागत क के मनावल जाला। 
चइत में अनुराग हवे, कहीं-कहीं बिरह हवे। राम के जनम के सोहर हवे। सोहर सोहावन हवे। सुगंधित महीना। सगरो फल-फूल के खूबसूरत गंध। मन में आलोड़न। कसक। नव संवत्सर। सब कुछ नया-नया। 
एही समय चइती के बहार रहेला। ई चइत माह पर केंद्रित लोक-गीत ह। अर्ध-शास्त्रीय गीत विधा में सम्मिलित कइल जाला आ उपशास्त्रीय बंदिश गावल जालीं स। चइत के महीना में गायल जाए वाला एह राग क विषय प्रेम, प्रकृति और होली, राम जनम आदि रहेलन। चइत श्री राम के जन्मो के मास हवे एह से एह गीत के हर पंक्ति के बाद अक्सर रामा यह शब्द लगावल जाला। संगीत के कई गो महफिल खाली चइती, टप्पा और दादरे गावल जालन स। ई अक्सर राग वसंत या मिश्र वसंत में निबद्ध होलन स। चइती, ठुमरी, दादरा, कजरी इत्यादि क गढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश आ मुख्यरूप से बनारस हवे। पहिले खाली एही के समर्पित संगीत समारोह होत रहलन, जे के चइता उत्सव कहल जात रहे। आज ई संस्कृति लुप्त हो रहल हवे, बाकिर चइती के लोकप्रियता संगीत प्रेमियन में बनल हवे। बारहमासे में चइत क महीना गीत-संगीत के मास के रूप में चित्रित कइल गइल हवे। 
चइत प्रतिपदा से भारतीय नववर्ष के प्रारंभ के साथे बड़का नवरातो शुरू हो जाला। शक्ति के आराधना के खातिर ई नौ दिन महत्वपूर्ण मानल जालें। एह दौरान घर में जवार या जौ बोवल जालें। हालांकि, कमे लोग ई जानेला कि अइसन काहें कइल जाला। अधिकांश लोग त बिना जनले परंपरा क निर्वाह करत चलि आ रहल हवें। जौ के पूर्ण फसल कहल जाला। वसंत ऋतु क पहिल फसल जौ होले, जेके शक्ति के अर्पित कइल जाला। मान्‍यता त ई हो हवे कि जौ उगवला से भविष्य से संबंधित कुछ बात के संकेतो मिलेला। यदि जौ तेजी से बढ़ेलन त घर में सुख-समृद्धि तेजी से बढ़े ले। यानी जौ समृद्धि के प्रतीक हवें। 
एह समय सुक्खल, वीरान शाखा पर नाजुक कोमल कोंपल आवल शुरू हो जालीं स, यहीं से वसंत ऋतु अपने उत्सव के शबाब पर पहुंचेले। 
फागुन आ चइत वसंत के उत्सव क महीना हवें। एही चइत के मध्य में जब प्रकृति अपने सिंगार के सृजन के प्रक्रिया में होले। लाल, पीयर, गुलाबी, नारंगी, नीले, सफेद रंग के फूल खिलेलन। पेड़न पर नया पत्ता आवेलन आ अइसन बुझाला कि पुरहर क पुरहर की सृष्टिये नई-नवेली हो गइल बा। ठीक एही बखत हमनीं के भौतिक दुनियो में नया के आगमन होला। नयका साल क ईहे समय हवे। नया के सृजन क, वंदन, पूजन और संकल्प क जब सृष्टि नया क निर्माण करेले, आह्वान करेले, तब्बे सांसारिक दुनियो नया के तरफ कदम बढ़ावेली। एह दृष्टि से कई गो जगहीं प गुड़ी पड़वा के एह समय मनावल गइला के बहुत गहिर अर्थ हवें। पुरान के बिदा होखला आ नया के स्वागत के संदेश देत ई पर्व ह, प्रकृति क, सूरज क, जीवन, दर्शन और सृजन क। जीवन-चक्र क स्वीकार, सम्मान आ अभिनंदन आ उत्सव ह गुड़ी पड़वा आ चइत। 
चइत किसान एके रबी के चक्र के अंत के तौर पर मनावेलन। चइतो में सूर्य के अरघ छठ के दीहल जाला। घर के साफ-सफाई क के सुंदर रंगोली बनावल जालीं स। महाराष्ट्र आ मालवा-निमाड़ आदि में घर के खिड़कियन पर गुड़ी लगवला के विशेष तौर पर शुभ मानल जाला। गुड़ी के राम की लंका विजय के तौर पर आ महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी के विजय के ध्वजा के तौर पर लगावल जाले। लमहर डंडी पर गहिर हरियर या फिर पीयर रंग के नई साड़ी लगाके ओप्पर छोट लोटा या फिर गिलास सजावल जाले। ओप्पर काजर से आंख, नाक, मुंह बनावल जाला आ ओके फूल-हार से सजाके ओकर अरचना कइल जाला। घरन में श्रीखंड आ पूरनपोळी बनावल जाले। आरोग्य की दृष्टि से नीम के टटका पतइन क सेवन कइल जाला। एह तरह नयका साल के शुरुआत वसंत के उत्सव के साथे सुख, समृद्धि आ आरोग्य के संकल्प के साथ कइल जाला। 
चइत महिन्ना में भारत में ई देखि लीहल जाव कि प्रमुख कवन तेवहार होलें: 
  • धूलिका पर्व:- चइत मास के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के होली के बाद ई पर्व मनावल जाला। एह दिन होलिका दहन की अवशिष्ट राख के सब लोग श्रद्धापूर्वक कपारे प लगावेलन। 
  • बासोड़ा:- ई तिउहार होली के एक हफ्ता बाद चइत मास के कृष्ण पक्ष में सोमवार या गुरुवार के मनावल जाला आ शीतला माता के पूजा कइल जाला। बासोड़ा में भोजन एक दिन पहिलहीं बनाके रख दिहल जाला आ बासोड़ा वाले दिन ऊहे भोजन कइल जाला।
  • नवरात्र:- ई चइत मास के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से लेकर रामनवमी तक (9 दिन) नवरात्र के रूप में मनावल जाला। 
  • रामनवमी:- श्री राम के प्रादुर्भाव चइत शुक्ल नवमी के संभव भइल रहे, एही से एह तिथि के रामनवमी के नांव से जानल जाला। ‘राम जी लिहले जनमवां हो रामा, चइत महीनवां।’ ई चइती कंठ-कंठ में बसल बा।
चइती गीतों क मूल स्रोत लोक संगीते ह, किन्तु स्वर, लय आ ताल के कुछ विशेषता के कारन उपशास्त्रीय संगीत के मंचो पर बेहद लोकप्रिय ह। एह गीतन के वर्ण्य विषय में सिंगार रस के संयोग आ वियोग, दूनो पक्ष प्रमुख होलें। अनेक चइती गीतन में भक्ति रस के प्रधानता होला। चैत्र मास की नवमी तिथि के राम-जन्म क पर्व मनावल जाला। एह गीतन के जब महिला या पुरुष एकल रूप में गावेलन त इके 'चइती' कहल जाला, बाकिर जब समूह या दल बना कर गावल जाला त एके 'चैता' कहल जाला। एह गायकी क एक अवरू प्रकार हवे जे के 'घाटो' कहल जाला। 'घाटो' क धुन 'चइती' से तनी भिन्न हो जाले। एकर उठान बहुत ऊँच होले आ खाली मरद लोगे एके समूह में गावेलन। कब्बों -कब्बों गायकन के दू दल में बाँट के सवाल-जवाब या प्रतियोगिता के रूपे में एह गीतन के प्रस्तुत कइल जाला, जे के ‘चइता दंगल' कहल जाला। चइती गीतन के उपशास्त्रीय स्वरूपो प्रसिद्ध बा। चइती के भाव-भूमि त लोक जीवन से प्रेरित होल आ प्रस्तुति ठुमरी अंग से कइल गइल होला - ‘चइत मासे चुनरी रंगइबे हो रामा।’ 
लोक कला पहले उपजलीं, परम्परागत रूप में उनकर क्रमिक विकास भइल आ अपन उच्चतम गुणवत्ता के कारन ई शास्त्रीय रूप में ढल गइलीं। चइती गीतन के लोक-रंजक-स्वरूप आ स्वर आ ताल पक्ष के चुम्बकीय गुण के कारने उपशास्त्रीय संगीत में एके स्थान मिलल। लोक परम्परा में चइती 14 मात्रा के चाँचर ताल में गावल जाले, जेकरे बीच-बीच में कहरवा ताल क प्रयोग होला। गीतन के प्रचलित धुनों के जब सांगीतिक विश्लेषण कइल जाला तऽ हमनी के मालूम होला कि दूनो तालन के मात्रा में समानता के कारने चइत गीत लोक आ उपशास्त्रीय, दूनों स्वरूपन में लोकप्रिय बे। भारतीय फिल्मन में चइती धुन क प्रयोग त कई गीतन में कइल गइल बा बाकिर धुन के साथ-साथ रितु के अनुकूल साहित्य क प्रयोग कुछ गिनल चुनल फिल्मी गीतन में मिलेला। 1963 में प्रेमचन्द के बहुचर्चित उपन्यास ‘गोदान’ पर एही नांव से फिल्म बनल रहे। एह फिलिम के संगीतकार विश्वविख्यात सितार वादक पण्डित रविशंकर रहलीं, जे फिलिम के गीतन के पूर्वी भारत के लोकधुनन में निबद्ध कइले रहे। लोकगीतों के विशेषज्ञ गीतकार अनजान फिल्म के कथानक, परिवेश आ चरित्रों के अनुरूप गीतन के रचना कइले रहीं। एही गीतन में एगो चइती गीतो रहल, जेके मुकेश के स्वर में रिकार्ड कइल गइल रहे। गीत के बोल ह- ‘हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा…’। 
सरहुल उरांव जाति क जातीय नृत्य हवे। एह नृत्य क आयोजन चइत मास के पुनवासी के रात के समय कइल जाला। ई नृत्य एक प्रकार से प्रकृति क पूजा क आदिम स्वरूप ह। जनजाति लोगन क ई विश्वास ह कि साल बिरिछ के समूह में, जे के इहाँ 'सरना' कहल जाला, ओम्मे महादेव निवास करेलन। जनजाति लोगन क बैगा सरना बिरिछ के पूजा करेला। उहाँ गगरी में जल रखके सरना के फूल से पानी छिरकल जाला। एही समय सरहुल नृत्य प्रारम्भ कइल जाला। सरहुल नृत्य के प्रारंभिक गीतन में धर्म प्रवणता आ देवता की स्तुति होले बाकिर जइसे-जइसे रात गहरात जाले, ओकरे साथे नाच-संगीत मादक होखे लागेला। ई नाच प्रकृति के पूजा क एगो बहुते आदिम रूप हवे। 
चइत मास अपना स्वरूप में उत्सवधर्मी, ललित आ विविधवर्नी बा। कहीं निकर जाईं, सांझी के बेरा सीवाने में तऽ कवनो सुगंध के झकोरा से रउरा मन तृप्त हो जाई। आम के बउर, आम के टिकोरा, आम के गुरचरा।
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लेखक परिचय:-

जन्म: रामपुर, देवल आश्रम, मऊ नाथ भंजन, उत्तर प्रदेश
भोजपुरी, मैथिली और हिन्दी मे लेखन
20 से अधिक पुस्तकें 
कविता,निबंध,आलोचना आदि मे गहन हस्तक्षेप
द्विवागीश सम्मान,श्याम नारायण पांडेय सम्मान आदि 7 सम्मान
'इंद्रप्रस्थ भारती' [हिन्दी] तथा ' परिछन' [मैथिली-भोजपुरी ] पत्रिका का संपादन
मैथिली-भोजपुरी अकादेमी, दिल्ली तथा 
हिन्दी अकादेमी, दिल्ली के सचिव रह चुके हैं.
संपर्क:-
76, दिन अपार्टमेंट्स , सेक्टर -4, द्वारका ,नई दिल्ली-110078
मोबाइल-09968269237
e.mail- parichaydass@rediffmail.com
अंक - 76 (19 अप्रैल 2016)

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