दिनेश पाण्डेय के आठ कविता

सुबहाँ

कहीं तान से
कंगन के धुन
फेरू
कुनमुन।
लरज गइल ह डार
सोहरि के भुँइयाँ तक ले,
हरसिंगार के।
धीम बयारि,
सींक ना डोले।
झिंगुर कि छागल बाजत बा
रुनझुन-छुनछुन।
गाढ़ी राति मदाइल सइयाँ,
नीन न आवे,
आँतर सुर बाजे।
सूतऽ हे मन!
अनगुते में कतिक देर बा?
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ऊब

ई दुपहरिया जड़ उकाब अस,
बइठ गइल ह। छाती ऊपर
कहीं तान से उड़ते-उड़ते।

एक पखेरू इत्मीनान से
अबहूँ ले भाँवर पारत बा
आसमान में।

बादरकट्टू घाम।
कहीं मृगछौना जइसन
मेघ कुलाँचे।

ए सइयाँ, सींकर बन्ह खोलऽ,
चलऽ चलींजा अमराई के
जुरिछाँहीं में।

पलकन के सिहरन में डूबीं।
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जिबहखाना

हुँड़रा गावे लोरी/ पठरू/ मरम न बूझे हो
सबद लँगटुआ/ धा-धा-धा/ कठकागा लूझे हो

ले दुइ टुक्की हाड़/ चबाले/ रकत पिचासी रे
हबकुरिए भुद् / हब्कल/ काहे कुत्ता कासी रे

भकचोन्हर हव/ टोवे ना/ काग पिछाड़ी भागे
रामा हो रामे राम/ जंगल/ घात घनेरा लागे

ढोंढ़ी धइके घींच/ आँतड़ी/ अभी स्वाद ह शेष
का अललइले रे/ बोकवा/ रहे इहे अंदेश
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इचिक दाना

इचिक दाना, इचिक दाना,
दाना दे।
दँतकिस्सा के दँइता जागल,
दर-दारू दे, छाना दे।

दाना के दारुन दावत के
कर सरजाम।
उनकर सीत-बतासी घर के
ई पैगाम-
"हर घर पाछू एक आदमी,
नित-नित साँझ-बिहाना दे।"
दाना दे।

भर-भर छकड़ी घरे भेज दे,
बिना अबेर।
पूरी के पाकिट, कुछ तीअन,
बकरी-छेर।
दनुआँ के नवकी पीढ़ी पऽ,
पल-पल जान-पराना दे।
दाना दे।

अबहीं त आपन दाढ़ी के,
जरन बिसार।
हे ले कँकही, कँटदाढ़ी के
तिनुका झार।
हमर जहालत काहिलपन के
बचवा तू हरजाना दे।
दाना दे।
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धूँध

हिया पाथर त कटल ह जलकनी से,
के तुहिन-फाया लवारल ए मिता?

देह-तरु गलबाँहि डाले लचकले,
चुपे के दावागि बारल ए मिता?

जिंदगी भर रेत में तरुआ जरल,
माँझ मरुथल के ततारल ए मिता?

झूठ ह कि बरध के बिसराम हेंगी,
का करी जे हरे हारल ए मिता?

अपन छाँहीं, संग जे चलते रहल,
अब उहो सांगह उखारल ए मिता!

अवनधुनि सुन कहाँ पइनीं शोर में,
कान में आ के खखारल ए मिता?

दूर ले देखीं पलट के राहि में,
धूँध के जंगल पसारल ए मिता।
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कैनवस पर भोर

आधे हरदी, आधे रोरी,
लेइ मललि मुख साँवर गोरी।
ए सँवरो!
ए सँवरो, लेपन रंग काँचे।
कलावंत कइसे छबि खाँचे?

छने-छने हर कोना-सानी
आकीरति ढल जाले।
जब ले एक दिरिस के साधीं,
करका अस भिहिलाले।
नीचे कावर भुँई मटीली,
ऊपर ताल-तलैया नीली,
ए सँवरो!
ए सँवरो, मद्धम रंग-राचे।
कलावंत कइसे छबि खाँचे।

कैनवास के पाँजर-कोरे
धब्बा कुछ करिछाँही।
नीचे के आधार छोर पऽ
कांपत जल परिछाँही ।
सिरसिर दखिन-बतासी डोले,
गाछ-बिरछ पारे हिचकोले,
ए सँवरो!
ए सँवरो, के मंत्र पराँचे?
कलावंत कइसे छबि खाँचे।

दूर बँवारी आसमान में
उड़ले चंद परेवा।
जिनिगी के जाँगर खेवे ला
जुगवे परी कलेवा।
एक अकेल पखेरू ऊपर,
मोहित ताक रहल धरती पर।
सोनल रोम हजारन गइयाँ,
पर-पगडंडी, ढाल, खलइयाँ,
ए सँवरो!
ए सँवरो, के रूप सँवाचे?
कलावंत कइसे छबि खाँचे।
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पिलान

ए हरिराम, चलींजा दिल्ली,
जहवाँ बसे भुअरकी बिल्ली।
बिल्ली के दुई बांगड़ पुत्ता,
जस फटही फलकाहा जुत्ता।
जूता ले हम मुकुट बनायब।
सिर पर राखब, सरपट धायब।
कतनो लोग उड़ावैं खिल्ली।

ई जुतवा में बहुते गुन हव।
हरपल सुबहो-साँझ सगुन हव।
कतने लँगटा बनिगा राजा।
कतने बँगटा भोग सुराजा।
ढेर अधम परमारथ तरिगा।
संत-सुहृद पचि-पचि के मरिगा।
कतने घूम रहैं सखचिल्ली।

अब ना कबहूँ धोका खायब।
नित-नित गीत गरीबाँ गायब।
ई आजादी ढोंग, अकारथ।
एहिमाँ डूबि रहल हव भारथ।
अबर क्रांति के बिचड़ा बोयब।
अनगिन माँग कोखि के धोयब।
नगर गाँव घर बारब तिल्ली।

ले लफुअन के गोल बनायब।
डमडम डफली खूब बजायब।
दुइ-दुइ फूट नितंब उछारब।
बड़न-बड़न के गारी पारब।
जिन मतिमारे माथ उठइहैं।
समुझीं कि अखरेरे जइहैं।
धूर अकास उड़ायब गिल्ली।

जनता त सिधवा बाछी ह।
कुक्कुर मुँह भिनुकत माँछी ह।
जतने हाँकब, ततने सटिहैं।
शहद दिखाइब, लप-लप चटिहें।
लोकतंत्र के इहे तकाजा।
सेवक सिर पर, सुटुकल राजा।
राजा के मुँह लागल किल्ली।
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चरवाहा मेघ

गाँव-घर, आरी-पगारी,
चँवर-पथ, चाँचर, बधारी,
चले धावल बन-अरन में,
मेघ चरवाही।

झीन धोती के लपेटा,
कमर पर कुछ ढील फेंटा,
भँइँ कारी, गाइ धवरी,
चल दिहल धनखेत कवरी-
जास ना कहुँ भटक बेबह
ढोर बन राही।

किरिन के नखरा हजारन,
कल्ह सुकेशी, अब भिखारन,
माथ पर झंखार लवले
जर्द मुँह पर गर्द छवले
जा रहल गरदन झुका के
धूप परिछाँही।

खेत में सहजनी कुलबुल-
दूब, मोथा, कुसा हुलचुल।
कर रहल गलबात दादुर।
अंधखोहे सुटुक बादुर।
गाछि तरुअर थिरिक रहलें
डार गलबाँही।

दल चिउँटियन के चलल सज,
नीच तल अधिवास के तज।
श्रमिक जन कहवाँ ठिकाना?
साँझ जहवें, तहँ बिहाना।
टीस उजड़े के न भोगल
का बिथा थाही?

गिर गइल कुछ झड़ी पानी,
धूर के मेंटल निसानी।
कंठ तऽ सुखले रहल हऽ।
प्रान कुछ अवरे कहल हऽ।
मिटल ना तिसना चिरंतन,
मन हिरन घाही।

उठल ना पानी कयारी,
डुल गइल पुरवा बयारी।
पौध के उमगल थिराइल,
खेतिहर सुध-बुध हिराइल-
कहाँ किन पाइब धनोरी
मुँह फिरल स्याही।

मेघ ढोरन के बिटोरऽ,
खुलल खिसकल गाँठि जोरऽ।
मसक भर-भर छिरिक पानी,
रस भिंजी दुनिया - जहानी।
नमी के दरकार सगरी
अवरि का चाही?
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लेखक परिचय:-
नाम - दिनेश पाण्डेय
जन्म तिथि - १५.१०.१९६२
शिक्षा - स्नातकोत्तर
संप्रति - बिहार सचिवालय सेवा
पता - आ. सं. १००/४००, रोड नं. २, राजवंशीनगर, पटना, ८०००२३





मैना: वर्ष - 7 अंक - 118-119 (अप्रैल - सितम्बर 2020)

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