सीधवा - पं. प्रभाकर पांडेय ‘गोपालपुरिया’

रमेसर काका की सिधाई की चलते उनकी घर-परिवार के लोग उनके खोबसत रहेला। रमेसरो काका एतना सीधा, सोझबक हउअन की का कहल जाव। जब उ कवनो सीधाई काम करीहें त रमेसरी काकी के उनकर इ सिधाई उजबकई लागी अउर उ बरिस पड़िहें। रमेसर काका के सोझबक मन बस तनि हँसि के रही जाई अउर उनकर इ हँसी रमेसरी काकी के रिसि सातवाँ असमान पर पहुँचा दी। बहुत कुछ कहि जइहें रमेसरी काकी पर रमेसर काका कुछ ना कहिहें अउर रमेसरी काकी की चुपाते कहिहें तनी धोती-ओती द, पकवा इनार पर से नहइले आईं अउर एतने ना रमेसरी काकी के लाल आँखि के भी उनकरी पर कवनो असर ना पड़ी, अपनी भलमनसई से कहि बइठिहें, “ए खदेरन के माई! तोहरी अँखिया में कुछ परि गइल बा का हो, देखS न केतना लाल हो गइल बिया।” रमेसरी काकी के उ भोला बाति रोआ के छोड़ी अउर साथे-साथे हँसा के भी। एक ओर उनका रमेसर काका की सिधाई पर रिसी बरी त दूसरे ओर उनका लागी की उनकर सवाँग केतना अच्छा बा की कबो केहू के दुख ना पहुँचा सके, सबके भला कइल चाहेला। रमेसरी काकी के रिसि ए से बरी जाला की लोग रमेसर काका की सोझबकई के, सिधाई के कबो-कबो बहुत गलत फायदा उठा ले ला।

अब देखीं ना, घनेसर सुकुल के बँसवारी के केतने कोठि बा पर मरदवा एतना कंजूस अउर चल्हाँक हउअन की कबो अपनी बँसवारी में से एक्को कोइन भी ना कटिहें और गरज पड़ले पर रमेसर काका के जवन एक्के गो बाँसे के कोठि बा ओ ही में से लउर की नाव पर बाँस कटवा लिहें। आजु के रमेसरी काकी के रिसी जायज बा। भइल इ ह की आजु बिहाने-बिहाने घनेसर सुकुल रमेसर काका की दुआरे पर आ के बइठि गइने हँ। घनेसर सुकुल की दुआरे पर अवते रमेसरी काकी एकदम्मे सतरक हो गइली ह अउर रमेसर काका के घर में बोला के कहली ह की इ घनेसरा, लवड़पुत बहुते चालू ह। रउआँ एकरी बाती में मति आइब अउर न कवनो ए के जबाने देइब। रमेसरो काका खंखारि के रमेसरी काकी के बाति पर हामी भरत दुआरे निकल गइने हँ। पर अपनी सोझबकई की चलते घनेसर सुकुल की बाति में फँसिए गइने हँ। घनेसर सुकुल बाति सुरु कइले की पहिलहीं रमेसर काका के बड़ाई करत इ हो कहि गइने हँ की रमेसर काका इ तोहरी करम के ही परताप बा की तोहार लइका सहर में अच्छा पइसा कमाता अउर गाँव-घर में आ के तोहहू दुनु परानी के खेयाल राखता, ना त आजु की जुग में लइका-फइका त अपनी मेहरी-पुत में ही अझुराइल रहताने सन। कमाते ओ कुल के माई-बाप भुला जाताने पर तोहार लइका हीरा बा हीरा। अपनी खदेरन के बखानि सुनि के रमेसर काका मुस्किअइले बिना ना रहि पवने अउर साथे-साथे उनकी आँखी से आँसू झरे लागल। अब त इ हे सही मवका रहे घनेसर सुकुल के। फटाक से कहि बइठने, “रमेसर काका, बरखा के दिन आवता, सोंचतानी की पलानि-ओलानी छवा दीं। हमरियो कोठियन में बाँस त बानेसन पर ओतना पाकल ना। एगो काम करS, तोहरी कोठिया में से हम कुछ बाँस काटि ले तानी अउर अगर भविस में तोहरो गरज परी त हम कुछ बाँस दे देइब। अउर हँ, अच्छा रही की जवन तूँ पतहर बाँधि के धइले बाड़S अउर ऊँखी के पतई नेवछि के, ओ हू में से दु-चार बोझा दे दS, काहें की हमरा ढेर चउका बाने सन अउर तोहरा त खाली एगो गइए बा, त जब तोहरा पलानि-सलानी भा खोंप छवावे के होई त हम कुछ खर-पतहर भी दे देइब।” एतना कहले की बाद घनेसर सुकुल अपनी महेसर सुत के बोला के रमेसर काका की कोठि में जेतना सरहर बाँस रहे सब कटवा लेहने अउर साथे-साथे उनकी दुआरे पर से 2-4 बोझा कहि के सब पतहर अउर नेंवछल पतई उठवा ले गइने। अब बताईं सभे ए पर रमेसरी काकी के रिस ना बरी।

अब देखीं न, रमेसरी काकी के रिसी त आजु सातवां असमान पर ए से पहुँचि गइल बा की रमेसरे काका की देहल बाँस अउर खर-पतहर से जवन पलानी घनेसर सुकुल के छवाइल ह, ओ ही पलानी में घनेसर सुकुल चउकी पर बइठ के दु-चार जाने गँवहीं की लोग से रमेसर काका की सोझबकई (बुरबकई) के मजाक उड़ावत रहने हँ, अउर दाँत चियारत कहत रहने हँ की बै मरदे, रमेसर ककवा जइसन सोझबक जवलेक गाँव में रही, कवनो परेसानी लेहले के ताक नइखे।

राति भइल बा। आगि लागल-आगि लागल के हल्ला पूरा गाँव में फइल गइल बा। जे जहें बा, उहवें से बाल्टी-साल्टी में पानी भरि-भरि के ले के दउड़ता। दरअसल घनेसर सुकुल के जवन पलानि हाले छवाइल ह, उ धूं-धूं क के जरि रहल बिया। केतनो पानी फेंकाता आगि सांत नइके होत, देखत-देखत पूरा पलानि सोवाहा हो गइल बा अउर साथे-साथे ए पलानी में कोने में धइल पतहर-खर-ओर भी। भइल ह ई की घनेसर सुकुल के लइका महेसर अउर रमायन गाँजा पिए खातिर चीलम सुनगावत रहल ह लोग, अब पता ना कवनेगाँ एगो लुत्ती छटकि के पासे में राखल खर-पतहर में समा गइल ह, देखते देखत पलानी सोवाहा।

दूसरे दिन बिहाने-बिहाने, रमेसर काका घनेसर सुकुल की दुआरी पर पहुँचि के सांत्वना दे रहल बाने। घनेसर उदास मति होखS। हमरी लगे अउर जवन पतई-सतई, खर-पात बँचल बा उ ले के अउर साथे-साथे हमरी कोठि में से सारा बाँस कटवा के तूँ एगो नया पलानि छवा लS, वइसे भी अब हमरा खर-पात, बाँस आदि से कवनो मतलब नइखे काहें की हमार खदेरन संनेसा भेजवले बाने की दु-चार दिन में उ घरे आवताने अउर गइयो के रहे खातिर अउर गोहरा-सोहरा रखे खातिर ईंटा के दुगो घर लिंटर करा दिहें। अब पलानी-सलानी छवावे के काम नइखे। रमेसर काका की सोझबकई के मजाक उड़ावे वाला घनेसर सुकुल अब गमछा से अपनी आँख में आइल पानी के पोंछ रहल बाने। जय-जय।
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लेखक परिचय:-

नाम: पं. प्रभाकर पांडेय ‘गोपालपुरिया’
कार्यकारी संपादक, भोजपुरी पंचायत 
पुणे, महाराष्ट्र

 
 
अंक - 85 (21 जून 2016)

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