कवने खोतवा में लुकइलू आहि रे बलमु चिरई।
आहि रे बलूम चिरई, आहि रे बलमु चिरई।
बन-बन ढुँढली दर-दर ढुँढली ढुँढली नदी के तीरे
सांझ के ढुँढली रात के ढुँढली ढुँढली होत फजीरे
जन में ढुँढली मन में ढुँढली ढुँढली बीच बजारे
हिया-हिया में पइसि के ढुँढली ढुँढली विरह के मारे
कवने अँतरे में समइलू आहि रे बलमु चिरई
कवने खोतवा में लुकइलू आहि रे बलमु चिरई।
गीत के हम हर कड़ी से पुछलीं पुछलीं राग मिलन से
छंद-छंद लय ताल से पुछलीं पुछलीं सुर के मन से
किरन-किरन से जाके पुछलीं पुछलीं नल गगन से
धरती और पाताल से पुछलीं पुछलीं मस्त पवन से
कवने सुगना पर लोभइलू आहि रे बलमु चिरई
कवने खोतवा में लुकइलू आहि रे बलमु चिरई।
मंदिर से मस्जिद तक देखलीं, गिरिजा से गुरुद्वारा
गीता और कुरान में देखलीं, देखलीं तीरथ सारा
पंडित से मुल्ल तक देखलीं, देखली घरे कसाई
सगरी उमिरिया छछलत जियरा, कैसे तोहके पाईं
कवने बतिया पर कोहँइलू, आहि रे बलमु चिरई
कवने खोतवा में लुकइलू आहि रे बलमु चिरई।
-----------------------------------------------------------
लेखक परिचय:-
नाम: भोलानाथ गहमरी
जन्म: 19 दिसंबर 1923
मरन: 2000
जन्म थान: गहमर, गाजीपुर, उत्तरप्रदेश
परमुख रचना: बयार पुरवइया, अँजुरी भर मोती और लोक रागिनी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें